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________________ प्रथम अध्ययन - प्रतिबोध हेतु पूर्वभव का आख्यान १५३ भावार्थ - मेघकुमार! तब तुम जीर्ण - शीर्ण, जराजर्जरित, आकुल-व्याकुल, भूखे-प्यासे, दुर्बल, परिश्रांत, स्मृति रहित और दिग्मूढ होकर अपने समूह से पृथक् हो गए। दावानल की ज्वालाओं से व्यथित होने लगे। गर्मी, प्यास और भूख से अत्यन्त पीड़ित होकर बहुत ही घबरा गए। त्रस्त होकर इधर-उधर दौड़ते हुए तुम एक ऐसे तालाब में जिसमें पानी बहुत कम था, कीचड़ ही कीचड़ था, बिना घाट के ही उतर गए। (१६६) तत्थ णं तुमं मेहा! तीर-मइगए पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसण्णे। तत्थ णं तुम मेहा! पाणियं पाइस्सामित्तिक? हत्थं पसारेसि, से वि य ते हत्थे उदगं ण पावइ। तए णं तुम मेहा! पुणरवि कायं पच्चुद्धरिस्सामि-त्तिकटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते। शब्दार्थ - तीरमइगए - किनारे से दूर गए हुए, अंतरा चेव - बीच में ही, विसण्णे - फंस गये, हत्थं - सूंड को, पच्चुद्धरिस्सामि - निकालूं, बलियतरायं - गहरे, खुत्ते-फंस गए। ___.. भावार्थ - मेघ! तुम वहाँ किनारे से दूर चले गए। किन्तु पानी तक नहीं पहुंच सके। बीच में ही फंस गए। 'मैं पानी पीऊँ' यों विचार कर तुमने पानी लेने हेतु अपनी सूंड को फैलाया किन्तु वह पानी तक नहीं पहुँच सकी। तब तुमने पुनः ‘अपनी देह को बाहर निकालूं यह सोच कर बहुत जोर लगाया परन्तु कीचड़ में और गहरे फंस गए। (१७०) तए णं तुमं मेहा! अण्णया कयाइ एगे चिरणिजूढे गय वर जुवाणए सगाओ जूहाओ कर-चरण दंतमुसल-प्पहारेहिं विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयं पाएउं समोयरेइ। तए णं से कलभए तुमं पासइ, पासित्ता तं पुव्ववेरं सुमरइ २ ता आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो पिट्ठओ उच्छुभइ २ त्ता पुव्ववेरं णिज्जाएइ २ त्ता हट्ट तुट्टे पाणियं पियइ २ त्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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