SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र लगे। आग में जलते हुए पेड़ों के अग्र भाग मूंगे के समान लाल दिखाई देने लगे। प्यास से व्याकुल होने के कारण पक्षियों के पंख शिथिल हो गए। वे जीभ और तालु बाहर निकाल कर तेज सांस लेने लगे। ग्रीष्मकाल की गर्मी, सूरज के ताप, प्रचण्ड वायु, शुष्क घास, पत्ते तथा कचरे से युक्त चक्रवात के कारण भागते हुए, घबराए हुए सिंहादि जंगली प्राणियों के कारण पर्वतीय भाग आकुलतामय वातावरण से व्याप्त हो उठे। त्रास युक्त मृग, अन्यान्य पशु तथा सरीसृप इधर-उधर तड़फने लगे। मेघ! उस भयंकर अवसर पर तुम्हारा अर्थात् तुम्हारे पूर्व जन्म के सुमेरुप्रभ नामक गजराज का मुख विवर फट गया। जिह्वा बाहर निकल आई। बड़े-बड़े दोनों कान भयं जनित स्तब्धता के कारण तुंबिका की ज्यों ऊपर उठ गए। तुम्हारी परिपुष्ट और स्थूल सूंड संकुचित हो गई। तुमने अपनी पूंछ को ऊँचा कर लिया। बिजली की गर्जना के समान घोर चिंघाड़ से तुम आकाश को फोड़ते हुए से, चारों ओर लताओं को छिन्न-भिन्न करते हुए, जिसका राष्ट्र नष्ट हो गया हो, उस नरेन्द्र की तरह तूफान से हिलाए गए जहाज के समान विचलित होते हुए, भय के कारण बारबार लीद करते हुए घबराहट से बहुत से हाथियों के साथ विभिन्न दिशाओं विदिशाओं में इधरउधर भागने लगे। (१६६) तत्थ णं तुम मेहा! जुण्णे जरा-जजरिय-देहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले कलंते णहसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहूणे वणदव-जाला-पारद्धे उण्हेण य तहाए य छुहाए य परब्माहए समाणे भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए सव्वओ समंता आधावमाणे परिधावमाणे एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उइण्णो। ___शब्दार्थ - जुण्णे - जीर्ण, जरा-जजरिय-देहे - जराजर्जरित शरीर-बुढापे से दुर्बल बने शरीर वाले, आउरे - आतुर, मंसिए - क्षुधा पीड़ित, पिवासिए - प्यासे, व्याकुल, किलतेक्लांत, सहए - स्मृति विहीन, मूढविसाए - 'दिशाओं के ज्ञान से शून्य, विप्पाहूणे - बिछुड़े हुए, वणववजाला पारखे - दावाग्नि की ज्वालाओं से संतप्त, परम्भाहए - पराभूत, ताये - प्रस्त, संजायभए - भय युक्त, आधावमाणे - दौड़ता हुआ, अप्पोदयं - थोड़े पानी वाले, अतित्येणं - अतीर्थेन-बिना घाट के, उइण्णो - उतर गए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy