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मोक्ष के अक्षय सुखों को प्राप्त कर लेते हैं, जो उनकी बात नहीं मान कर इन्द्रिय विषय सेवन में अनुरक्त रहते हैं वे संसार में जन्म मरण करते रहते हैं।
सोलहवां अध्ययन - इस अध्ययन में द्रोपदी के जीव की कथा उसके नागश्री ब्राह्मणी के भव से चालू होती है। नागश्री के भव में उसने मासखमण के पारणे के दिन धर्मरुचि मुनिराज को कड़वे विषाक्त तूम्बे का शाक बहराया जिसके कारण उसका कितना भव भ्रमण बढ़ा इसका विस्तृत खुलासा इस अध्ययन में किया है। लम्बे काल तक जन्म मरण के पश्चात् उसे मनुष्य भव की प्राप्ति हुई तो उसके शरीर का स्पर्श इतना तीक्ष्ण और अग्नि जैसा उष्ण था कि उसके साथ जिसने भी शादी की वे उसके साथ रहने को तैयार नहीं हुए, अंततोगत्वा उसने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा ग्रहण के बाद भी वह शरीर बकुश, शिथिलाचारिणी, स्वच्छन्द होकर साध्वी समुदाय को छोड़कर एकाकिनी रहने लगी। एकाकिनी विचरण के दौरान उसने एक वैश्या को पांच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा। उसे देखकर उसने निदान कर लिया कि मेरे तप संयम का फल हो तो मैं भी इसी प्रकार के सुख को प्राप्त करूँ, फलस्वरूप देव गणिका के बाद द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई। इस अध्ययन में सुपात्र को अमनोज्ञ आहार बहराने का दुष्परिणाम एवं साधना जीवन जो अक्षय सुखों का दिलाने वाला है, उसे संसारी तुच्छ सुखों के लिए निदान करना कितना हानि कारक है, यह बतलाया गया है।
सत्तरहवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में अश्वों का उदाहरण देकर यह प्रतिपादित किया गया है कि जो साधक साधना जीवन में प्रवेश करने के बाद इन्द्रियों के वशीभूत होकर अनुकूल इन्द्रिय विषयों में आसक्त होता है वह घोर कर्म बंधन को प्राप्त करती है, जिस प्रकार इन्द्रियों में अनुरक्त अश्व बंधन-बद्ध हुए। इसके विपरीत जो साधक इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में आसक्त नहीं होता वह कर्मों से बद्ध नहीं होता और जन्म मरण रहित आनंदमय निर्वाण को प्राप्त करता है जैसे इन्द्रियों के विषयों के प्रलोभन में न फंसने वाले अश्व स्वच्छन्द स्वाधीन विचरण करने में समर्थ हुए।
अठारहवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में संयमी साधकों को आहार के प्रति कितना अनासक्त भाव रखना चाहिए इसका चित्रण किया गया है। धन्य सार्थवाह की पुत्री सुंसुमा का 'चिलात' चोर ने अपहरण कर उसे अपने कंधे पर डाल कर राजगृह नगर से बहुत दूर भागता
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