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________________ [16] अकरणीय कार्य करने का उसने संकल्प कर लिया और तदनुसार उनका निर्मोण करवाया। निर्माण ही नहीं करवाया बल्कि वह उसमें इतना आसक्त हुआ कि मर कर उसी बावड़ी में मेढ़क के रूप में उत्पन्न हुआ। बाद में मेढ़क के भव में परिणामों की विशुद्धि से उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ जिसके बल पर उसने अपने पूर्व भवों को देखा। अपनी आत्म-साक्षी से उसने दोषों का पश्चात्ताप कर पुनः श्रावक के व्रतों को स्वीकार किया। फलस्वरूप देवगति में उत्पन्न हुआ। वहाँ का आयुष्य पूर्ण कर वह महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य भव प्राप्त कर चारित्र अंगीकार करके मोक्ष को प्राप्त करेगा। चौदहवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में पाठकों के बोध के लिए दो बातों.का प्रकाश डाला गया है। एक तो कर्मों के विचित्र स्वरूप को बतलाया गया है कि एक समय वह था जब तेतली-पुत्र प्रधान ने स्वर्णकार की लड़की (पोटिला) के रूप सौन्दर्य पर आसक्त होकर पत्नी के रूप में मांगनी कर उसके साथ शादी की। कालान्तर में उसके साथ स्नेह सूत्र ऐसा टूटा कि तेतली-पुत्र प्रधान पोटिला को देखना तो दूर उसके नाम सुनने मात्र से ही उसे घृणा हो गई। दूसरा उसी पोट्टिला के उपदेश से प्रतिबोध पाकर तेतली-पुत्र प्रधान ने संयम अंगीकार कर केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त किया। विस्तृत जानकारी कथानक के अध्ययन से ज्ञात होगी। पन्द्रहवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में मन को लुभाने वाले इन्द्रिय-विषयों से सावधान रहने की सूचना दी गई है। धन्य सार्थवाह अपने सार्थ के साथ चम्पानगरी से अहिच्छत्रा नगरी की ओर प्रस्थान करता है, रास्ते में भयंकर अटवी आती है, उस अटवी के मध्य भाग में एक जाति के विषैले वृक्ष का बगीचा था। उसके फलों का नाम नंदीफल था, जो दिखने में सुन्दर, सुगन्धित एवं चखने पर मधुर लगते थे। पर उनका आस्वादन (चखने) मात्र प्राण हरण करने वाला था। धन्य सार्थवाह इस तथ्य का जानकार था, अतएव उसने सभी सार्थ के सदस्यों को सूचित किया कि इन नंदीफलों को खाना तो दूर बल्कि इसके वृक्षों की छाया के निकट भी न फटके। जिस-जिस ने उसकी बात मानी वें सकुशल अहिच्छत्र नगरी पहुँचे। जिन्होंने इसकी बात नहीं मान कर उन फलों को चक्खा वे मृत्यु को प्राप्त हो गए। तीर्थंकर भगवान् सार्थवाह के समान हैं, वे संसारी प्राणियों को नंदीफल के समान इन्द्रिय विषय सुखों से बचने का संकेत करते हैं, जो उनकी बात मान कर इनको त्याग करता है वे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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