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प्रथम अध्ययन - राज्याभिषेक
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कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वपुप्फेहिं सव्वगंधेहिं सव्वमल्लेहिं सव्वोसहीहि य सिद्धत्थएहि य सविड्ढीए सव्वज्जुईए सव्वबलेणं जाव दुंदुभिणिग्योस-णाइयरवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ २ त्ता करयल जाव कटु एवं वयासी - __ शब्दार्थ - सोवण्णियाणं - स्वर्ण निर्मित कलश, रुप्पमयाणं - रजतनिर्मित, भोमेज्जाणंमृत्तिका निर्मित, सव्वोदएहिं - सब प्रकार के जल से, सव्वमट्टियाहिं .- सब प्रकार की मिट्टी से, सिद्धत्थएहि - सफेद सरसों से, सव्विड्ढीए - सब प्रकार की ऋद्धियों द्वारा, अभिसिंचइअभिषेक करता है।
भावार्थ - अनेक गणनायक, दंडनायक आदि राज्याधिकारियों तथा विशिष्टजनों से घिरे हुए राजा श्रेणिक ने स्वर्ण, रजत, मणि, स्वर्ण-रजत, स्वर्ण-मणि, रजत-मणि, स्वर्ण-रजत-मणि तथा मृत्तिका प्रत्येक के १०८ कलशों - कुल आठ सौ चौसठ कलशों में पूरित जल द्वारा, सब प्रकार की मृत्तिकाओं, पुष्पों, गंधों, मालाओं, औषधियों तथा श्वेत सरसों द्वारा एवं सब प्रकार की ऋद्धि, द्युति, सैन्य बल के साथ, नगाड़ों के निर्घोष से उत्पन्न ध्वनि के बीच, महामहिमान्वित राज्याभिषेक संपन्न किया तथा हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर, परस्पर मिलाए हुए हाथों को प्रणमन् की मुद्रा में मस्तक पर घुमाते हुए, उसने (श्रेणिक राजा ने) कहा।
(१३५) "जय-२ णंदा! जय-२ भद्दा! जय-णंदा! भदं ते, अजियं जिणेहि जियं पालयाहि, जियमज्झे वसाहि, अजियं जिणेहि, सत्तुपक्खं, जियं च पालेहि मित्तपक्खं, जाव भरहो इव मणुयाणं, रायगिहस्स णगरस्स अण्णेसिं च बहूणं गामागरणगर जाव सण्णिवेसाणं" आहेवच्चं जाव विहराहि त्तिक? जय जय सदं पउंजंति। तए णं से मेहे राया जाए महया जाव विहरइ।
शब्दार्थ - णंदा - आनंदप्रद, भद्दा - भद्र-कल्याणमय, जयणंदा - जगत् के लिए आनंदप्रद, अजियं - अजित-जिन्हें नहीं जीता गया है, जिणेहि - जीतो, जियं - जित-जिन पर विजय प्राप्त कर लो, पालयाहि - पालन करो, जियमज्झे - विजितों-जिन्हें जीत चुको उनके मध्य, वसाहि - वास करो, सत्तुपक्खं - शत्रु-पक्ष, मित्तपक्खं - मित्र-पक्ष, भरहो -
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