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________________ १२० ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र + + + + (१२७) तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे णो संचाएंति मेहं कुमारं बहूहिं विसयाणुलोमाहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे विसय पडिकूलाहिं संजम-भउव्वेय-कारियाहिं पण्णवणाहिं पण्णवेमाणा एवं वयासी। ___शब्दार्थ - णो संचाएंति - नहीं सकते हैं-समर्थ नहीं होते हैं, विसयाणुलोमाहिं - विषयानुकूल, आघवणाहि - प्रतिपादन द्वारा, पण्णवणाहि - प्रज्ञापना द्वारा-विशेष रूप से कथन द्वारा, सण्णवणाहि- संज्ञापना-सम्यक् ज्ञापन द्वारा-भलीभाँति समझा कर, विण्णवणाहिविज्ञापना-पुनः पुनः युक्तिपूर्वक समझा कर, विसयपडिकूलाहिं - सांसारिक विषयों के प्रतिकूल, संजमभउव्वेय-कारियाहिं - संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पादक। भावार्थ - जब मेघकुमार के माता-पिता उसको सांसारिक विषयों के अनुकूल-सांसारिक विषयों के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाले अनेक प्रकार के कथनों द्वारा समझा नहीं सके तो वे विषयों के प्रतिकूल तथा संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाले बहुविध वचनों से समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे। (१२८) एस णं जाया! णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे णेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिज्जाणमग्गे णिव्वाणमग्गे, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव णिरस्साए, गंगा इव महाणई पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो इव भुयाहिं दुत्तरे तिक्खं चंकमियव्वं गरुअं लंबेयव्वं, असिधारव्वयं चरियव्वं। शब्दार्थ - अणुत्तरे - सर्वश्रेष्ठ, केवलिए - सर्वज्ञ प्रतिपादित, णेयाउए - न्याय-संगत, सल्लगत्तणे- मायादि शल्यों-कांटों को काटने वाला, सिद्धि मग्गे - सिद्धत्व-प्राप्ति का मार्ग, मुत्तिमग्गे - मुक्ति-प्राप्त करने का मार्ग, णिजाणमग्गे-कर्मों से छूटने का मार्ग, णिव्वाणमग्गे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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