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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
कफ, सुक्क - वीर्य, सोणिय - रक्त, आसव - झरने वाले, दुरुस्सास-णीसासा - दूषित उच्छ्वास-निःश्वास, दुरूय- दूषित-कुत्सित, मुत्त - मूत्र, पुरीस - मल, पूय- मवाद, उच्चारमल, पासवण - मूत्र, जल्ल - शरीर का मल, सिंघाणग - नासिका मल।
भावार्थ - यह सुनकर मेघकुमार ने माता पिता से कहा - आप मुझे सदृश गुणयुक्त पत्नियों के साथ सुखोपभोग के अनंतर भगवान् महावीर स्वामी से दीक्षा लेने का जो कह रहे हैं, उस संबंध में मेरा आप से निवेदन है कि मनुष्य जीवन विषयक ये काम-भोग, इनके आधारभूत शरीर अपवित्र वमन, पित्त, श्लेष्म, शुक्र, रक्त इत्यादि के निर्झर हैं - इनसे ये दूषित पदार्थ झरते रहते हैं। वे इन दूषित पदार्थों तथा दूषित उच्छ्वास-निःश्वास आदि से भरे हैं। दूषित . पदार्थों से ही वे उत्पन्न होते हैं। ये अनियत, अशाश्वत, जीर्ण-शीर्ण तथा नष्ट होने वाले हैं। पहले या बाद में - ये अवश्य ही छूटने वाले हैं। इसलिए कौन जाने, कौन पहले चला जाए, कौन बाद में जाए? इसलिए प्रव्रज्या लेने को मैं उत्कंठित हूँ।
(१२५) . तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी - "इमे ते जाया! अज्जयपज्जय-पिउपज्जयागए सुबहु हिरण्णे य सुवण्णे य कंसे य दूसे य मणिमोत्तिय संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण संतसारसावएज्जे य अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगाम दाउं पगामं भोत्तुं पगामं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाव जाया! विपुलं माणुस्सगं इहिसक्कार समुदयं, तओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए जाव पव्वइस्ससि।".
शब्दार्थ - अज्जय - पितामह, पज्जय - प्रपितामह, पिउज्जय - पिता का प्रपितामह, कंसे - कांसी, पगामं - प्रकाम-अत्यंत, दाउं - देने के लिए, भोतुं - भोगने के लिए, परिभाएउं - वितीर्ण करने (बांटने) के लिए, अणुहोहि - अनुभव करो, समुदयं - भाग्योदय, अणुभूयकल्लाणे - सर्व कल्याणकारी पुण्य कार्यों का अनुभव कर-आनंद लेकर।
भावार्थ - तत्पश्चात् माता-पिता ने मेघकुमार से कहा - पुत्र! पितामह, प्रपितामह आदि पूर्व पुरुषों से चले आते चाँदी, सोना, कांसी, मणि, मुक्ता, शंख, बहुमूल्य पाषाण, विद्रुम (मूंगा), लाल रत्न तथा और भी सारभूत द्रव्य तुम्हें प्राप्त हैं, जो सात पीढ़ियों तक भी प्रचुर
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