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________________ प्रथम अध्ययन - दोहदपूर्ति हेतु देवाराधना णिक्खित्त - निक्षिप्त-रखकर, सत्थ - शस्त्र, अबीयस्स - अद्वितीय-दूसरे को साथ लिए बिना, दम्भ - डाभ, संथार - संस्तरण-बिछौना, अट्ठमभत्तं - तीन उपवास-तेले का तप, पगिण्हित्ता - ग्रहण कर। भावार्थ - तदनंतर अभयकुमार ने मन में ऊहापोह किया, चिंतना एवं परिकल्पना की - मेरी छोटी माता धारिणी के असमय में मेघदर्शन रूप दोहद पूर्ति किसी मनुष्यकृत उपाय द्वारा संभव नहीं है। देवकृत उपाय के बिना वह मनोरथ पूर्ण नहीं हो सकता। सौधर्मकल्पवासी एक देव मेरा पूर्व जन्म का मित्र है। वह अत्यंत ऋद्धि, पराक्रम और वैभवशाली है। इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, मणि रत्न, स्वर्ण निर्मित आभरणों का, शस्त्रों तथा सभी आरंभ-समारंभ जनक उपकरणों का त्याग कर, पौषधशाला में पौषध स्वीकार करूँ। डाभ के बिछौने पर संस्थित हुआ, मैं त्रिदिवसीय उपवास (तेले का तप) ग्रहण कर, अपने पूर्वजन्म के मित्र-देव का स्मरण करूँ। वह देव मेरी छोटी माता धारिणी देवी के इस अकाल मेघ दर्शन रूप दोहद की पूर्ति करेगा। - विवेचन - उपर्युक्त वर्णन में अभयकुमार के मित्र देव के लिए "पुव्वसंगइए" (पूर्व संगतिक-पहले का परिचित) शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे वह मित्र अभयकुमार के इस भव का मित्र ध्यान में आता है। आगे-देव के वर्णन में भी पूर्व भव का स्नेह बताया गया है। इससे भी अभयकुमार का कोई मित्र काल करके देव बना हो, इस बात की पुष्टि होती है। . . (६७) . एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता । पोसहसालं पमज्जइ, पमजित्ता उच्चार-पासवण-भूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहिता . दब्भ-संथारगं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पुव्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणे २ चिट्ठइ। - शब्दार्थ - पमज्जइ - प्रमार्जित करता है, उच्चारपासवणभूमिं - मल-मूत्र त्याग करने का स्थान, पडिलेहेइ - प्रतिलेखन करता है, मणसीकरेमाणे - मन में स्मरण करता हुआ। भावार्थ - इस प्रकार संप्रेक्षण-चिंतन, मनन कर अभयकुमार पौषधशाला में आया। उसने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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