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________________ ६४ जीवाजीवाभिगम सूत्र . विक्खंभेणं मूले विच्छिण्णे माझे संखित्ते उप्पिं तणुए बाहिं वट्टे अंतो चउरंसे गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे॥ से णं पागारे णाणाविहपंचवण्णेहिं कविसीसएहिं उवसोभिए, तंजहा - किण्हेहिं जाव सुक्किल्लेहिं॥ ते णं कविसीसगा अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं देसूणमद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं सव्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा॥ भावार्थ - हे भगवन् ! विजय देव की विजया नामक राजधानी कहां कही गई है? हे गौतम! विजयद्वार के पूर्व में तिरछे असंख्यद्वीप समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जंबूद्वीप नाम के द्वीप में बारह हजार योजन जाने पर विजय देव की विजया नामक राजधानी है जो.बारह हजार योजन की लम्बी चौड़ी है तथा सैंतीस हजार नौ सौ अडतालीस योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। ___ वह विजया राजधानी चारों ओर से एक परकोटे से घिरी हुई है। वह परकोटा साढे सैंतीस योजन ऊंचा है उसकी चौड़ाई मूल में साढे बारह योजन, मध्य में छह योजन एक कोस और ऊपर तीन योजन आधा कोस है, इस तरह वह मूल में विस्तृत है, मध्य में संक्षिप्त है और ऊपर कम है। वह बाहर से गोल, अंदर से चौकौन, गाय की पूंछ के आकार का है। वह सर्व स्वर्णमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। वह परकोटा नाना प्रकार के पांच वर्षों के कपिशीर्षकों-कंगूरों से सुशोभित है। वे इस प्रकार हैं - काले यावत् सफेद कंगूरों से। वे कंगूरे लम्बाई में आधा कोस, चौड़ाई में पांच सौ धनुष, ऊंचाई में कुछ कम आधा कोस हैं। वे कंगूरे सर्व मणिमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। ___विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए बाहाए पणुवीसं पणुवीसं दारसयं भवतीति मक्खायं॥ ते णं दारा बावट्टि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथूभियागा ईहामिय० तहेव जहा विजए दारे जाव तवणिज्जवालुयपत्थडा सुहफासा सस्सि(म)रीया सुरूवा पासाईया ४। तेसि णं दाराणं उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो चंदणकलस-परिवाडीओ पण्णत्ताओ तहेव भाणियव्वं जाव वणमालाओ॥ तेसि णं दाराणं उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पण्णरस जोयणाई अड्डाइज्जे कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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