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________________ ३९२ प्रश्न - हे भगवन्! एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतमं ! जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है। बेइन्द्रिय जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है । तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिये । जीवाजीवाभिगम सूत्र प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक नैरयिक रूप में कितने काल तक रहता है। उत्तर - हे गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक रहता है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है। इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी समझना चाहिये । देवों का कथन नैरयिक के समान समझना चाहिये। सिद्ध सादि अपर्यवसित होने से सदा काल उसी रूप में रहते हैं । 1 प्रश्न - हे भगवन् ! एकेन्द्रिय का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का अन्तर है। बेइन्द्रिय का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । इसी प्रकार तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, नैरयिक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देव का अन्तर समझना चाहिये । सिद्ध सादि अपर्यवसित हैं अतः उनका अन्तर नहीं है । प्रश्न - हे भगवन्! इन एकेन्द्रियों, बेइन्द्रियों, तेइन्द्रियों, चउरिन्द्रियों, नैरयिकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यातगुणा हैं, उनसे देव असंख्यातगुणा हैं, उनसे तिर्यंच पंचेन्द्रिय असंख्यातगुणा हैं, उनसे चउरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे बेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे सिद्ध अनंतगुणा हैं और उनसे भी एकेन्द्रिय अनंतगुणा हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीवों के नौ भेदों का कथन किया गया है। इनकी कायस्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व पूर्व के सूत्रों से स्पष्ट है। अहवा णवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- पढमसमयणेरड्या अपढमसमयणेरइया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमणूसा अपढमसमयणूसा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा सिद्धा य ॥ पढमसमयणेरइया णं भंते!० ? गोयमा ! एक्कं समयं, अपढमसमयणेरइयस्स णं भंते! ० ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं समऊणाइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समऊणाइं, पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते! ० ? गोयमा ! एक्कं समयं, Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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