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________________ सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव अष्टविध वक्तव्यता ३८९ आभिनिबोधिक ज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल-देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन रूप है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी का अंतर भी समझना चाहिये। केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है। क्योंकि वह सादि अपर्यवसित है। अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित इन दोनों प्रकार के मतिअज्ञानी का अन्तर नहीं है। जो सादि सपर्यवसित मतिअज्ञानी है उनका अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। इसी प्रकार श्रुतअज्ञानी का अन्तर भी समझना चाहिये। विभंगज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। प्रश्न - हे भगवन्! आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्याय ज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं। उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणा हैं, उनसे मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी विशेषाधिक और स्वस्थान तुल्य है उनसे विभंगज्ञानी असंख्यातगुणा हैं उनसे केवलज्ञानी अनंतगुणा हैं और उनसे मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी अनंतगुणा हैं और स्वस्थान तुल्य हैं। विवेचन - उपरोक्त आठ भेदों का विवेचन सर्व जीवों की सप्तविध छठी प्रतिपत्ति में किया जा चुका है। अहवा अट्ठविहा सव्व जीवा पण्णत्ता, तंजहा-णेरइया तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ सिद्धा॥ _____णेरइए णं भंते! णेरइएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं, तिरिक्खजोणिए णं भंते!०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, तिरिक्खजोणिणी णं भंते!०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाइं, एवं मणूसे मणूसी, देवे जहा णेरइए, देवी णं भंते!०? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाइं, सिद्धे णं भंते! सिद्धेत्ति०! गोयमा! साइए अपज्जवसिए। - णेरड्यस्स णं भंते! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, तिरिक्खजोणियस्स णं भंते! अंतरं कालओ०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं, तिरिक्खजोणिणी णं भंते! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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