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________________ ३७६ जीवाजीवाभिगम सूत्र कोहकसाई माणकसाई-मायाकसाई णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं, लोहकंसाइस्स जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं, अकसाई दुविहे जहा हेट्ठा॥ कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई णं अंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं, लोहकसाइस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं, अकसाई तहा जहा हेट्ठा॥ अप्पाबहुयं-अकसाइणो सव्वत्थोवा माणकसाई तहा अणंतगुणा। कोहे माया लोहे विसेसमहिया मुणेयव्वा॥१॥२६१॥ भावार्थ - जो ऐसा प्रतिपादित करते हैं कि सर्व जीव पांच प्रकार के हैं, वे पांच भेद इस प्रकार हैं- १. क्रोध कषायी २. मान कषायी ३. माया कषायी ४. लोभ कषायी और ५. अकषायी। क्रोध कषायी, मान कषायी, माया कषायी की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त है। लोभ कषायी की कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है। अकषायी दो प्रकार के हैं जैसा कि पहले कहा गया है। क्रोध कषायी, मान कषायी, माया कषायी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है। लोभ कषायी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त है। अकषायी के विषय में जैसा पहले कहा गया है वैसा ही समझना चाहिये। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अकषायी, उनसे मान कषायी अनंतगुणा, उनसे क्रोध कषायी, माया कषायी और लोभ कषायी क्रमशः विशेषाधिक हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीवों के पांच भेद कहे हैं - क्रोध कषायी, मान कषायी, माया कषायी, लोभ कषायी और अकषायी। इन भेदों की कायस्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व इस प्रकार हैं - कायस्थिति - क्रोध कषायी, मान कषायी, माया कषायी की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त की कही गयी है क्योंकि क्रोध आदि का उपयोग काल अंतर्मुहूर्त ही कहा है। लोभ कषायी की जघन्य कायस्थिति एक समय की है। यह कथन उपशम श्रेणी से गिरते समय लोभ कषाय के उदय होने के प्रथम समय के बाद के समय में मृत्यु हो जाने की अपेक्षा से है। मृत्यु के समय किसी के क्रोध आदि का रदय संभव है। लोभकषायी की उत्कृष्ट कायस्थिति अंतर्मुहूर्त की है। अकषायी के दो भेद हैं - सादि अपर्यवसित (केवली) और सादि सपर्यवसित (उपशांत कषायी) सादि सपर्यवसित अकषायी की कायस्थिति जघन्य एक समय की है यह द्वितीय आदि समय में मृत्यु हो जाने एवं क्रोधादि के उदय होने की अपेक्षा समझनी चाहिये। उत्कृष्ट कायस्थिति अंतर्मुहूर्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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