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________________ सर्व जीवाभिगम - सर्व जीव पंचविध वक्तव्यता असंयत नोसंयतासंयत अनंतगुणा हैं और उनसे असंयत अनंतगुणा हैं। इस प्रकार सर्व जीवों की चतुर्विध प्रतिपत्ति समाप्त हुई। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में संयत आदि की अपेक्षा सर्व जीव के चार भेद कहे हैं। इन चार भेदों की कायस्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है - - कायस्थिति - संयत. कायस्थिति जघन्य एक समय की है क्योंकि सर्वविरति परिणाम के दूसरे समय में किसी की मृत्यु भी हो सकती है। उत्कृष्ट कार्यस्थिति देशोन पूर्वकोटि की है। असंयत के तीन भेद हैं १. अनादि अपर्यवसित असंयत जो कभी भी संयम नहीं लेगा २. अनादि सपर्यवसित असंयत- जो संयम लेगा और उसी संयम से सिद्धि प्राप्त करेगा ३. सादि सपर्यवसित असंयत - सर्वविरति या देशविरति से भ्रष्ट । प्रथम दो असंयत अनादि है अतः उनकी कायस्थिति नहीं है । सादि सपर्यवसित असंयत की कार्यस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट अनंतकाल, अनंतकाल अर्थात् काल से अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप और क्षेत्र से देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त रूप है। संयतासंयत की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि है । बाल्यकाल में संयतासंयतपन नहीं होने के कारण देशोन समझना चाहिये। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध हैं । सिद्ध सादि अपर्यवसित होने से सदाकाल उसी रूप में रहते हैं । ३७५ - Jain Education International अन्तर- संयत का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनंतकाल - देशोन पुद्गल परावर्त रूप है। इतने काल के बाद जीव नियमा संयत होता है। अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित असंयत का अन्तर नहीं है। सादि सपर्यवसित असंयत का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है । असंयतपन का बाधक रूप संयतकाल और संयतासंयत काल उत्कृष्ट इतना ही है। संयतासंयत का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त है क्योंकि इतने काल में कोई गिर कर पुनः संयतासंयत हो सकता है । उत्कृष्ट अंतर देशोन पुद्गल परावर्त है। नोसंयत-नो असंयत- नोसंयतासंयत का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े संयत हैं क्योंकि वे संख्यात कोटिकोटि प्रमाण हैं, उनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं क्योंकि असंख्यात तिर्यंच देशविरति वाले हैं उनसे नोसंयत - नोअसंयत-नोसंयतासंयत (सिद्ध) अनंतगुणा हैं, उनसे असंयत अनंतगुणा हैं क्योंकि सिद्धों से वनस्पति जीव अनंतगुणा हैं । सर्व जीव पंचविध वक्तव्यता तत्थ णं जे ते एवमाहंसु-पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहाकोहकसाई माणकसाई मायाकसाई लोहकसाई अकसाई ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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