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________________ सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव चतुर्विध वक्तव्यता ३७१ ४. चौथी अपेक्षा से स्त्रीवेदक की कायस्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक १४ पल्योपम। । ५. पांचवी अपेक्षा से स्त्रीवेदक की कायस्थिति जघन्य एक समय उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक पल्योपम की है। इन पांचों अपेक्षाओं का विस्तृत विवेचन तीसरी (त्रिविध) प्रतिपत्ति में दिया जा चुका है। पुरुषवेद की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त की है। यह स्त्रीवेद आदि से निकलकर अंतर्मुहूर्त तक पुरुषवेद में रह कर पुन: स्त्रीवेद प्राप्त करने की अपेक्षा से है। उत्कृष्ट कायस्थिति साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व की है। यह उत्कृष्टकाल देव, मनुष्य और तिर्यंच भवों में भ्रमण करने की अपेक्षा है। नपुंसक वेद की जघन्य कायस्थिति एक समय की और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल-अनंतकाल की है। शंका - स्त्रीवेदक और नपुंसकवेदक की.वरह पुरुषवेदक की जघन्य कायस्थिति एक समय की क्यों नहीं कही गई है? समाधान - उपशम श्रेणी में वेदोपशमन के पश्चात् एक समय तक स्त्रीवेद या नपुंसक वेद का अनुभव होता है जबकि उपशम श्रेणी में जो मरता है वह पांच अनुत्तर विमानवासी देवों में ही जाता है। उनमें मात्र पुरुषवेद ही होने से वह पुरुषवेद में ही उत्पन्न होता है अन्य वेद में नहीं। अतः जन्मान्तर में भी निरन्तर रूप से गमन की अपेक्षा एक समय की कायस्थिति घटित नहीं होती है। अंवेदक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - १. सादि अपर्यवसित (क्षीण वेद वाले) और २. सादि सपर्यवसित (उपशांत वेद वाले)। सादि सपर्यवसित की कायस्थिति जघन्य एक समय है क्योंकि द्वितीय समय में मर कर देब गति में पुरुषवेद संभव है। उत्कृष्ट कायस्थिति अंतर्मुहूर्त की है तत्पश्चात् मर कर वह पुरुषवेद वाला हो जाता है या श्रेणी से गिरता हुआ जिस वेद से श्रेणी पर चढ़ा उस वेद का उदय हो जाने से वह सवेदक हो जाता है। अन्तर - स्त्रीवेद का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त है क्योंकि वेद का उपशम होने पर पुन: अंतर्मुहूर्त में वेद का उदय हो सकता है अथवा स्त्रीपर्याय से निकल कर पुरुषवेद या नपुंसकवेद में अंतर्मुहूर्त रह कर पुनः स्त्री पर्याय में आया जा सकता है। उत्कृष्ट अंतर वनस्पतिकाल (अनंतकाल) का है। पुरुषवेद का अन्तर जघन्य एक समय है क्योंकि उपशम श्रेणी में पुरुषवेद का उपशम होने पर एक समय के अनन्तर पुरुषत्व रूप में उत्पन्न होना संभव है। उत्कृष्ट अंतर वनस्पतिकाल का है। स्त्रीवेद की तरह नपुंसकवेद का जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त है उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व का अंतर है। इसके बाद जीव अवश्य नपुंसक वेद में उत्पन्न होता है। अवेदक सादि अपर्यवसित का अन्तर नहीं। सादि सपर्यवसित अवेदक का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त है क्योंकि अंतर्मुहूर्त बाद पुनः श्रेणी का आरंभ संभव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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