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________________ सर्व जीवाभिगम-सर्व जीव चतुर्विध वक्तव्यता ग्रहण की अपेक्षा से एक समय कहा गया है । उत्कृष्ट कायस्थिति (संचिट्ठणा) अंतर्मुहूर्त की है । अंतर्मुहूर्त्त के बाद तथारूप जीव स्वभाव से वह नियमा मनोयोग से रहित हो जाता है। इसी प्रकार वचन योगी की संचिट्ठणा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त्त समझना चाहिये । काययोगी अर्थात् मनोयोगी वचन योगी से रहित एकेन्द्रिय आदि की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त्त की है। बेइन्द्रिय आदि से निकल कर पृथ्वी आदि में अंतर्मुहूर्त रह कर पुनः बेइन्द्रिय आदि में गमन की अपेक्षा यह कथन समझना चाहिये, उत्कृष्ट कार्यस्थिति वनस्पतिकाल की है अर्थात् काययोगी उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक उसी रूप में रह सकता है। अयोगी अर्थात् सिद्ध सादि अपर्यवसित हैं अतः वे सदा उसी रूप में रहते हैं । अंतर- मनोयोगी और वचन योगी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । काय योगी का अंतर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है। इसका कारण इस प्रकार समझनाजिस समय मन, वचन योग का व्यापार होता है, उस समय काय योग का व्यापार होते हुए भी आगमकारों ने नहीं माना है। इसीलिए काययोग का अन्तर एक समय माना गया है अथवा एक समय में मनयोग की निवृत्ति हो जाने से या काल कर जाने की अपेक्षा से भी एक समय की स्थिति बताई है। ३६९ · अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े मनोयोगी हैं क्योंकि देव, नैरयिक, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य ही मनोयोगी हैं। उनसे वचनयोगी असंख्यातगुणा हैं क्योंकि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय वचन योग वाले हैं उनसे अयोगी अनंतगुणा हैं क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे काययोगी अनंत गुणा हैं क्योंकि सिद्धों से वनस्पति जीव अनंतगुणा हैं। अहवा चउव्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- इत्थवेयगा पुरिसवेयगा णपुंसगवेयगा अवेयगा, इत्थवेयए णं भंते! इत्थिवेयएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! (एगेण आएसेण० ) पलियसयं दसुत्तरं अट्ठारस चोइस पलियपुहुत्तं, समओ जहणणेणं, पुरिसवेयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं, णपुंसगवेयस्स जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो । अवेयए दुविहे पणते, तंजहा - साइए वा अपज्जवसिए साइए वा सपज्जवसिए से जहणणेणं एक्कं स॰ उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । इत्थिवेयस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, पुरिसवेयस्स० जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं वणस्सइकालो, णपुंसगवेयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं, अवेयगो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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