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________________ सर्व जीवाभिगम - सर्व जीव त्रिविध वक्तव्यता. कायपरित्त का अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त है अर्थात् अंतर्मुहूर्त्त तक साधारणों में रह कर पुनः प्रत्येक शरीरी में आया जा सकता है उत्कृष्ट अंतर अनंतकाल अढ़ाई पुद्गल परावर्तन का है। अर्थात् अनंत काल तक जीव साधारण रूप में रह सकता है। संसार परित्त का अन्तर नहीं है क्योंकि संसार परित्त से छूटने पर पुनः संसार परित्त नहीं होता तथा सिद्ध जीवों का प्रतिपात नहीं होता । काय - अपरित का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त्त है। यानी अंतर्मुहूर्त्त तक प्रत्येक शरीरी रह कर जीव पुनः साधारण वनस्पति में आ सकता है। उत्कृष्ट अन्तर असंख्यातकाल (पृथ्वीकाल)। अर्थात् काल से असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप और क्षेत्र से असंख्यात लोक के आकाश प्रदेशों को प्रतिसमय एक एक निकालने पर जितने समय में वे खाली हो उतने समय का है। अनादि अपर्यवसित संसार अपरित का अन्तर नहीं, अनादि सपर्यवसित संसार अपरित का भी अंतर नहीं क्योंकि संसार- अपरित के जाने पर पुनः संसार- अपरित नहीं होता । सादि अपर्यवसित होने सेनोपरित्त-नो अपरित्त का अंतर नहीं है । अल्पबहुत्व - सबसे थोड़े परित्त हैं क्योंकि काय-परित्त और संसार - परित्त जीव थोड़े हैं। उनसे नो परित्तनो- अपरित्त जीव अनन्तगुणा हैं क्योंकि सिद्ध जीव अनंत हैं। उनसे अपरित्त अनन्तगुणा है क्योंकि कृष्णपाक्षिक जीव अनंत हैं। अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- पज्जत्तगा अपज्जत्तगा णोपज्जत्तगाणोअपजत्तगा, पज्जत्तगे णं भंते! ? गोयमा! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं । अपज्जत्तगे णं भंते! ० ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं णोपजत्तणोअपज्जत्तए साइए अपज्जवसिए। पज्जत्तगस्स अंतरं जहणेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं, अपज्जत्तगस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं, तइयस्स णत्थि अंतरं । अप्पाबहु० सव्वत्थोवा णोपजत्तगणोअपज्जत्तगा अपज्जत्तगा अनंतगुणा पज्जत्तगा संखेज्जगुणा ॥ २५२ ॥ भावार्थ अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा - पर्याप्तक, अपर्याप्तक और - . नोपर्याप्तक-नो अपर्याप्तक । प्रश्न- हे भगवन् ! पर्याप्तक, पर्याप्तक रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक, अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त । Jain Education International ३६३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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