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________________ ३६२ जीवाजीवाभिगम सूत्र उत्तर - हे गौतम! अपरित दो प्रकार के कहे गये हैं यथा - काय अपरित और संसार अपरित्त । प्रश्न - हे भगवन्! काय अपरित्त, काय अपरित के रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल यावत् अढ़ाई पुद्गल परावर्तन । संसार अपरित दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा- अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित। क नोपरित्त-नो अपरित्त सादि अपर्यवसित है। कायपरित्त का जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतर अनंतकाल यावत् अढ़ाई पुद्गल परावर्तन है । संसारपरित का अन्तर नहीं है। काय अपरित्त का जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अंतर असंख्यातकाल - पृथ्वीकाल है अनादि अपर्यवसित संसार अपरित्त का अंतर नहीं है। अनादि सपर्यवसित संसार अपरित्त का भी अंतर नहीं है। नोपरितनो अपरित्त का भी अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े परिक्त हैं, नोपरित नोअपरित्त अनंत गुणा हैं और उनसे अपरित्त अनन्तगुणा हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीव तीन प्रकार के कहे हैं १. परित्त २. अपरित्त और ३. नोपरित्त - नो अपरित्त । जिन्होंने संसार तथा साधारण वनस्पतिकाय का को सीमित कर दिया है, वे जीव परित्त कहलाते हैं। इससे विपरीत अपरित्त हैं तथा सिद्ध जीव नोपरित्त-नोअपरित है। परित के दो भेद हैं १. काय परित्त और २ संसार परित्त । काय परित अर्थात् प्रत्येक शरीरी । संसार परित्त अर्थात् जिसका संसार परिभ्रमण काल देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त है। कायपरित्त की जघन्य कायस्थिति अंतर्मुहूर्त्त है । वह साधारण वनस्पति से परित्तों में अंतर्मुहूर्त्त काल तक रह कर पुनः साधारण में चले जाने की अपेक्षा से है । उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यातकाल अर्थात् पृथ्वीकाल है यानी पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक शरीरी का जितना संचिट्ठणकाल है उतना असंख्यातकाल है । इसके पश्चात् नियम से साधारण रूप में पैदा होता है। संसार परित की कायस्थिति जघन्य - अंतर्मुहूर्त्त है । इसके बाद कोई अन्तकृत केवली होकर मोक्ष में जा सकता है। उत्कृष्ट कार्यस्थिति अनंतकाल यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त है। इसके पश्चात् वह नियमा मोक्ष में जाता है। अपरित दो प्रकार के कहे गये हैं-काय अपरित और संसार अपरित । काय अपरित्त साधारण वनस्पति जीव हैं और संसार अपरित्त कृष्ण पाक्षिक जीव हैं। काय अपरित्त की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त है अंतर्मुहूर्त के पश्चात् वह किसी भी प्रत्येक शरीरी में जा सकता है । उत्कृष्ट कार्यस्थिति अनन्तकाल अर्थात् अढ़ाई पुद्गल परावर्तन है। संसार अपरित्त के दो भेद हैं- अनादि अपर्यवसित, जो कभी मोक्ष में नहीं जावेगा और अनादि सपर्यवसित- भव्य विशेष । नोपरित्त-नोअपरित्त ( सिद्ध जीव ) सादि अपर्यवसित है क्योंकि वहाँ से जीव प्रतिपात नहीं होता ( गिरता नहीं ) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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