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________________ ३५६ जीवाजीवाभिगम सूत्र सबसे थोड़े अनाहारक हैं उनसे आहारक असंख्यातगुणा हैं। शंका - सिद्धों से वनस्पति जीव अनंतगुणा हैं वे प्रायः आहारक ही होते हैं फिर यहाँ अनन्तगुणा क्यों नहीं कहा है ? समाधान - समुच्चय निगोद राशि के एक असंख्यातवें भाग जितने निगोद प्रति समय विग्रह गति में होते हैं और विग्रह गति में जीव अनाहारक ही होते हैं अतः आहारक असंख्यातगुणा ही घटित होते हैं, अनन्तगुणा नहीं। अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा-सभासगा य अभासगा य॥ सभासए णं भंते! सभासएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥ अभासए णं भंते! गोयमा! अभासए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-साइए वा अपजवसिए साइए वा सपजवसिए, तत्थ णं जे से साई सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं काल अणंताओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ वणस्सइकालो॥ भावार्थ - अथवा सर्वजीव दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - सभाषक और अभाषक। प्रश्न - हे भगवन् ! सभाषक, सभाषक के रूप में कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त। प्रश्न - हे भगवन् ! अभाषक, अभाषक रूप में कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! अभाषक दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - सादि अपर्यवसित और सादि सपर्यवसित। इनमें जो सादि सपर्यवसित अभाषक हैं वह जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल अर्थात् अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल-वनस्पतिकाल तक रहता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीवों के दो भेद कहे हैं - १. सभाषक और २. अभाषक। 'भाषमाणा भाषका इतरेऽभाषकाः' - जो बोल रहा है वह सभाषकं कहलाता है शेष अभाषक हैं। सभाषक, सभाषक रूप में जघन्य एक समय रहता है। भाषा द्रव्य के ग्रहण समय में ही मृत्यु हो जाने या अन्य किसी कारण से भाषा व्यापार से उपरत हो जाने से जघन्य काल एक समय कहा है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की स्थिति कही है। इतने काल तक भाषा द्रव्य का निरन्तर ग्रहण और निसर्ग होता है तत्पश्चात् तथाविध स्वभाव से सभाषक अवश्य अभाषक हो जाता है। ___ अभाषक के दो भेद हैं - सादि अपर्यवसित और सादि सपर्यवसित। सादि अपर्यवसित सिद्ध हैं और सादि सपर्यवसित पृथ्वीकाय आदि हैं। इनमें जो सादि सपर्यवसित है वह जघन्य अंतर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है इसके बाद पुनः सभाषक हो जाता है। अथवा पृथ्वी आदि भव की जघन्य स्थिति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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