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________________ ३४८ जीवाजीवाभिगम सूत्र एक समय उपशम श्रेणी को प्राप्त कर वेदोपशमन के एक समय बाद मरण होने पर पुनः सवेदक होने की अपेक्षा से। उत्कृष्ट कायस्थिति अंतर्मुहूर्त की क्योंकि उपशम श्रेणी का काल इतना ही है। इसके बाद नियम से पतन होने से सवेदक होता है। सवेयगस्स णं भंते! केवइकालं अंतरं होइ? गोयमा! अणाइयस्स अपजवसियस्स णत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपजवसियस्स णत्थि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं॥ अवेयगस्स णं भंते! केवइयं कालं अंतर होइ? गोयमा! साइयस्स अपजवसियस्स णथि अंतरं, साइयस्स. सपजवसियस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट्टू देसूणं। अप्पाबहुयं, सव्वत्थोवा अवेयगा सवेयगा अणंतगुणा। एवं सकसाई चेव अकसाई चेव २ जहा सवेयगे तहेव भाणियव्वे॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सवेदक का अन्तर कितने काल का कहा गया है? उत्तर- हे गौतम! अनादि अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता। अनादि सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं होता। सादि सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त का है। प्रश्न - हे भगवन्! अवेदक का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? ' उत्तर - हे गौतम! सादि अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता। सादि सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंतकाल यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल परावर्त है। अल्प बहुत्व - सबसे थोड़े अवेदक हैं, उनसे सवेदक अनन्तगुणा हैं। जैसा सवेदक के विषय में कहा है इसी प्रकार सकषायी के विषय में भी समझ लेना चाहिये। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सवेदक-अवेदक का अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन किया गया है जो इस प्रकार समझना चाहिये अन्तर - अनादि अपर्यवसित सवेदक का अन्तर नहीं है क्योंकि अपर्यवसित होने से उस भाव का कभी त्याग नहीं होता। अनादि सपर्यवसित सवेदक का भी अन्तर नहीं होता क्योंकि अनादि सपर्यवसित अपान्तराल में उपशम श्रेणी न करके भविष्य में क्षीण वेदी होता है। क्षीण वेदी के पुनः सवेदक होने की संभावना नहीं है क्योंकि वह गिरता नहीं है। सादि सपर्यवसित सवेदक का अन्तर जघन्य एक समय है क्योंकि दूसरी बार उपशम श्रेणी प्रतिपन्न का वेदोपशमन के अनन्तर समय में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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