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________________ अष्टम प्रतिपत्ति ३३७ +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नौ प्रकार के संसारी जीवों की कायस्थिति और अंतर का कथन किया गया है। जिसका स्पष्टीकरण पूर्व प्रतिपत्तियों के अनुसार समझ लेना चाहिये। ___ अप्पाबहुयं, सव्वत्थोवा पंचिंदिया चउरिदिया विसेसाहिया तेइंदिया विसेसाहिया बेइंदिया विसेसाहिया तेउक्काइया असंखेपुढविका० आउ० वाउ० विसेसाहिया वणस्सइकाइया अणंतगुणा।सेत्तं णवविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता॥२४२॥ ॥अट्ठमा णवविहपडिवत्ति समत्ता॥ भावार्थ - अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चउरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे बेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुणा हैं, उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुणा हैं। इस तरह नौ प्रकार के संसार समापनक जीवों का वर्णन हुआ। नवविधाख्या नामक आठवीं प्रतिपत्ति समाप्त। विवेचन - नौ प्रकार के संसार समापन्नक जीवों का अल्पबहुत्व इस प्रकार कहा गया है - सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं क्योंकि ये संख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण विष्कंभ सूची से प्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती असंख्यात श्रेणी गत आकाश प्रदेश राशि के बराबर हैं। उनसे चउरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूत संख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण हैं उनसे तेइन्द्रिय विशेषाधिक हैं क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूततर संख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण है। उनसे बेइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूततम संख्यात योजन कोटाकोटि प्रमाण है। उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि ये असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि ये प्रभूत असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण है। उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि ये प्रभूततर असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं क्योंकि ये प्रभूततम असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनंतगुणा हैं क्योंकि ये अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। ॥नवविधाख्या नामक अष्टम प्रतिपत्ति समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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