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________________ ३३२ जीवाजीवाभिगम सूत्र है। प्रथम समय तिर्यंच का जघन्य अंतर एक समय कम दो क्षुल्लक भव ग्रहण और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। अप्रथम समय तिर्यंच का अन्तर जघन्य समय अधिक (समयाधिक) एक क्षुल्लक भव ग्रहण और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शत पृथक्त्व है। प्रथम समय मनुष्य का जघन्य अंतर एक समय कम दो क्षुल्लक भव ग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अप्रथम समय मनुष्य का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव ग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। देवों का अंतर नैरयिकों के समान कहना चाहिये। वह इस प्रकार हैं - प्रथम समय देव का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तथा अप्रथम समय देव का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में आठ प्रकार के संसारी जीवों का अन्तर कहा गया है जो इस प्रकार समझना चाहिये - प्रथम समय नैरयिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष कहा है यह दस हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के नरक से निकल कर अंतर्मुहूर्त काल पर्यन्त अन्यत्र रह कर पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। उत्कृष्ट अंतर वनस्पतिकाल (अनन्तकाल) है यह नरकं से निकल कर . अनन्तकाल तक वनस्पति में रहने के बाद पुन: नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा समझना चाहिये। अप्रथम समय नैरयिक का जघन्य अंतर समयाधिक अंतर्मुहूर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यंच गर्भ में या मनुष्य गर्भ में अंतर्मुहूर्त रह कर पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। प्रथम समय अधिक होने से समयाधिक कहा है। उत्कृष्ट अंतर वनस्पतिकाल है। प्रथम समय तिर्यंच का जघन्य अंतर एक समय कम दो क्षुल्लक भव ग्रहण है। यह तिर्यंच के मनुष्य का भव कर पुन: तिर्यंच में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। एक भव तो प्रथम समय कम तिर्यंच क्षुल्लक भव का और दूसरा संपूर्ण मनुष्य का क्षुल्लक भव है। उत्कृष्ट अंतर वनस्पतिकाल का है। अप्रथम समय तिर्यंच का जघन्य अंतर समयाधिक क्षुल्लक भवग्रहण है। यह तिर्यंच क्षुल्लक भव ग्रहण के चरम समय को अधिकृत अप्रथम समय मान कर उसमें मरने के बाद मनुष्य का क्षुल्लक भवग्रहण और पुनः तिर्यंच में उत्पन्न होने के प्रथम समय व्यतीत हो जाने की अपेक्षा समझना चाहिये। उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक सागरोपम शत पृथक्त्व कहा है, यह देवादि भवों में उत्कृष्ट इतने काल तक भ्रमण के पश्चात् पुनः तिर्यंच में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। मनुष्यों का अन्तर तिर्यंचों के समान और देवों का अन्तर नैरयिकों के समान उपरोक्तानुसार समझ लेना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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