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________________ चतुर्थ प्रतिपत्ति - कायस्थिति २९५ उत्तर - हे गौतम! एकेन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल प्रमाण है। प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय, बेइन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! बेइन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल की है। इसी प्रकार तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय की कायस्थिति भी समझनी चाहिये। प्रश्न - हे भगवन्! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! पंचेन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम की कही गई है। अपज्जत्तएगिदिए णं भंते!० कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं जाव पंचिंदियअपज्जत्तए। पजत्तगएगिदिए णं भंते!० कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखिज्जाइं वाससहस्साइं। एवं बेइंदिएवि, णवरं संखेजाइं वासाइं। तेइंदिए णं भंते!० संखेज्जा राइंदिया। चउरिदिए णं० संखेजा मासा। पजत्तपंचिंदिए० सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं॥ भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन्! अपर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवों की कायस्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! अपर्याप्तक एकेन्द्रिय जीवों की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अंतर्मुहूर्त की है। इसी प्रकार यावत् अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तक की कायस्थिति का कथन कर देना चाहिये। प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक एकेन्द्रिय की कायस्थिति कितनी कही गई है? उत्तर - हे गौतम! पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव की कायस्थिति का काल जघन्य अंतर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों का है। इसी प्रकार बेइन्द्रिय का कथन करना चाहिये विशेषता यह है कि यहाँ संख्यात वर्ष कहना चाहिये। तेइंदिय की कायस्थिति संख्यात रातदिन और चउरिन्द्रिय की संख्यात मास की है। पर्याप्त पंचेन्द्रिय की कायस्थिति उत्कृष्ट कुछ अधिक (सातिरेक) सागरोपम शत पृथक्त्व की कही गई है। _ विवेचन - अपर्याप्तक एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त कही गई है क्योंकि अपर्याप्तक लब्धि का काल प्रमाण इतना ही होता है। पर्याप्तक एकेन्द्रिय जीव की कायस्थिति उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों की इस प्रकार से है - एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट भवस्थिति बाईस हजार वर्ष की है, अप्कायिक की सात हजार वर्ष की है, तेजस्कायिक की तीन रात दिन की है, वायुकायिक की तीन हजार वर्ष की है और वनस्पतिकायिक की दस हजार वर्ष की है। इन जीवों के निरन्तर कतिपय पर्याप्त भवों को जोड़ने पर संख्यात हजार वर्षों का काल घटित होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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