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जीवाजीवाभिगम सूत्र
रस स्पर्श वाले, उत्तम वैक्रिय शरीरधारी, श्रेष्ठ वस्त्र गंध माल्य और लेपन के धारक, महर्द्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले हैं। कड़े और बाजूबंदों से मानो भुजाओं को उन्होंने स्तब्ध कर रखी हैं, अंगद कुण्डल आदि आभूषण उनके कपोल को सहला रहे हैं, कानों में कर्णफूल और हाथों में विचित्र करभूषण धारण किये हुए हैं। विचित्र पुष्पमालाएं मस्तक पर शोभायमान हैं वे कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए हैं तथा कल्याणकारी श्रेष्ठमाला और अनुलेपन धारण किये हुए हैं। उनका शरीर देदीप्यमान होता है। वे लंबी वनमाला धारण किये हुए हैं। दिव्य वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे वहां अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपने अपने हजारों सामानिक देवों का, त्रायस्त्रिंशक देवों का, लोकपालों का, अपनी-अपनी सपरिवार अग्रमहिषियों कां, अपनीअपनी परिषदों का, अपनी अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का अपने-अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा बहुत से वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञा ऐश्वर्यत्व तथा सेनापतित्व करते-कराते और पालते पलाते हुए निरन्तर होने वाले महान् नाट्य गीत तथा कुशल वादकों द्वारा बजाये जाते हुए वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घन, मृदंग आदि वाद्यों से उत्पन्न ध्वनि के साथ दिव्य शब्दादि कामभोगों को भोगते हुए विचरते हैं ।
जंबूद्वीप के मेरु पर्वत के दक्षिण में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमिभाग से ऊपर ज्योतिषियों से अनेक कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर सौधर्म नामक कल्प (देवलोक) है। यह पूर्व पश्चिम में लम्बा, उत्तर दक्षिण में चौड़ा, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित, अर्चिमाला और दीप्तियों की राशि के समान कांति वाला, असंख्यात कोटाकोटि योजन की लम्बाई चौड़ाई और परिधि वाला तथा सर्वरत्नमय है। इस सौधर्म विमान में बत्तीस लाख विमानावास हैं इन विमानों के मध्य देशभाग में पांच अवतंसक कहे गये हैं १. अशोकावतंसक २. सप्तपर्णावतंसक ३. चंपकावतंसक ४. चूतावतंसक और इन चारों के मध्य में पांचवां सौधर्मावतंसक है। ये अवतंसक रत्नमय है स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। इन सब बत्तीस लाख विमानों में सौधर्म कल्प के देव रहते हैं जो महर्द्धिक हैं यावत् दसो दिशाओं को उद्योतित करते हुए आनंद से सुखोपभोग करते हैं और अपने सामानिक आदि देवों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं।
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सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ ?
गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तंर्जहा समिया चंडा जाया, अब्धिंतरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया ॥
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