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________________ २३८ जीवाजीवाभिगम सूत्र दीवसमुद्दा णामधेजेहिं पण्णत्ता। केवइया णं भंते! दीवसमुद्दा उद्दारसमएणं पण्णत्ता? गोयमा! जावइया अड्डाइज्जाणं सागरोवमाणं उद्धारसमया एवइया दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पण्णत्ता॥१८९॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नामों की अपेक्षा द्वीप और समुद्र कितने हैं ? उत्तर -हे गौतम! लोक में जितने शुभ नाम हैं, शुभ वर्ण हैं यावत् शुभ स्पर्श हैं उतने ही नामों वाले द्वीप और समुद्र हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! उद्धार समयों की अपेक्षा द्वीप और समुद्र कितने हैं ? उत्तर - हे गौतम! अढाई सागरोपम के जितने उद्धार समय हैं उतने द्वीप और सागर हैं। द्वीप समुद्र के परिणाम दीवसमुद्दा णं भंते! किं पुढविपरिणामा आउपरिणामा जीवपरिणामा पुग्गलपरिणामा? गोयमा! पुढविपरिणामावि आउपरिणामावि जीवपरिणामावि पुग्गलपरिणामावि॥ दीवसमुद्देसु णं भंते! सव्वपाणा सव्वभूया सव्वजीवा सव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णपुव्वा? हंता गोयमा! असइं अदुवा अणंतखुत्तो॥१९०॥ ॥इइ दीव समुद्दा समत्ता॥ . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या द्वीप समुद्र पृथ्वी के परिणाम हैं, अप् के परिणाम हैं, जीव के परिणाम हैं और पुद्गल के परिणाम है? उत्तर - हे गौतम! द्वीप समुद्र पृथ्वी परिणाम भी हैं, अप् परिणाम भी हैं, जीव परिणाम भी हैं और पुद्गल परिणाम भी हैं। प्रश्न - हे भगवन् ! क्या इन द्वीप समुद्रों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं ? उत्तर - हाँ गौतम! कई बार अथवा अनंतबार इन द्वीप समुद्रों में सर्व प्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव और सर्व सत्त्व पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार द्वीप समुद्र का वर्णन समाप्त हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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