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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - नंदीश्वर द्वीप का वर्णन २२५ .0000000000000000000000000000000++++++++++000000...............* योजन की है। ये स्वच्छ हैं, मृदु हैं। प्रत्येक के आसपास चारों ओर पद्मवर वेदिका और वनखण्ड हैं। इनमें त्रिसोपान-पंक्तियाँ और तोरण हैं। ___ तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपव्वया चउसट्टि जोयणसहस्साई उड्डे उच्चत्तेणं एगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं सव्वत्थसमापल्लगसंठाणसंठिया दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तहा पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया० वणसंडवण्णओ बहुसम० जाव आसयंति सयंति०। सिद्धाययणस्स तं चेव पमाणं अंजणपव्वएसु सच्चेव वत्तव्वया, णिरवसेसं भाणियव्वं जाव उप्पिं अट्ठमंगलगा॥ भावार्थ - उन प्रत्येक पुष्करिणियों के मध्य भाग में दधिमुख पर्वत हैं जो चौसठ हजार योजन ऊंचे, एक हजार योजन जमीन में गहरे और सब जगह समान हैं। ये पल्यंक के आकार के हैं। दस हजार योजन की इनकी चौड़ाई है। इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन (३१६२३) इनकी परिधि है। ये सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मवरवेदिका और वनखण्ड हैं। उनका वर्णन कह देना चाहिये। उनमें बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वहां बहुत से वाणव्यंतर देव देवियां उठते हैं बैठते हैं और अपने पुण्यफल का अनुभव करते हुए विचरते हैं। सिद्धायतनों का प्रमाण अंजन पर्वत के सिद्धायतनों के समान समझ लेना चाहिये। सारा वर्णन उसी प्रकार कहना चाहिये यावत् आठ आठ मंगल कह देने चाहिये। . तत्थ णं जे से दक्खिणिल्ले अंजणगपव्वए तस्स णं चउद्दिसिं चत्तारि णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-भद्दा य विसाला य कुमुया पुंडरीगिणी, (णंदुत्तरा य णंदा य आणंदा णंदिवड्डणा) तं चेव दहिमुहा पुव्वया तं चेव पमाणं जाव सिद्धाययणा॥ भावार्थ - उनमें जो दक्षिण दिशा का अंजन पर्वत है उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं। यथा - भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुंडरिकिणी (अथवा नंदोत्तरा, नंदा, आनंदा और नंदिवर्धना) उसी तरह दधिमुख पर्वता का वर्णन उतना ही प्रमाण आदि सिद्धायतन तक कह देना चाहिये। तत्थ णं जे से पच्चथिमिल्ले अंजणगपव्वए तस्स णं चउदिसिं चत्तारि णंदा पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-णंदिसेणा अमोहा य गोथूभा य सुदंसणा, (भद्दा य विसाला य कुमुया पुंडरीगिणी) तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव सिद्धाययणा॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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