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________________ १६६ समाना चाहिया जीवाजीवाभिगम सूत्र ................................................................ भावार्थ - हे भगवन् ! आभ्यंतर लावणिक (लवण समुद्र में रह कर जंबूद्वीप की दिशा में शिखा से पहले विचरने वाले) चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं ? __ हे गौतम ! जंबूद्वीप के मेरु पर्वत के पूर्व में लवण समुद्र में बारह हजार योजन जाने पर आभ्यंतर लावणिक चन्द्रों के चन्द्र नामक द्वीप हैं। इनका सारा वर्णन जंबूद्वीप के चन्द्रद्वीपों की तरह कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि इनकी राजधानियां अन्य लवण समुद्र में हैं। शेष वर्णन पूर्वानुसार समझना चाहिये। इसी तरह आभ्यंतर लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप लवण समुद्र में बारह हजार योजन जाने पर स्थित हैं आदि राजधानी पर्यंत सारा वर्णन चन्द्रद्वीपों के समान समझना चाहिये। कहि णं भंते! बाहिरलावणगाणं चंदाणं चंददीवाणाम दीवा पण्णत्ता? गोयमा! लवण-समुदस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुहं पच्चरिथमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं बाहिरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता धायइसंडदीवंतेणं अद्धेगूणणवइजोयणाइं चत्तालीसं च पंचणउइभागे जोयणस्स ऊसिया जलंताओ लवणसमुद्दतेणं दो कोसे ऊसिया बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पउमवरवेइया वणसंडा बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा मणिपेढिया- .. सीहासणा सपरिवारा सो चैव अट्ठो रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं तिरियमसं खेजे० अण्णंमि लवणसमुद्दे तहेव सव्वं। भावार्थ - हे भगवन् ! बाह्य लावणिक (लवण समुद्र में रह कर शिखा से बाहर विचरण करने वाले) चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां है? ___ हे गौतम! लवण समुद्र की पूर्वीय वेदिकान्त से लवण समुद्र के पश्चिम में बारह हजार योजन जाने पर बाह्य लावणिक चन्द्रों के चन्द्र नामक द्वीप हैं जो धातकीखंड द्वीप के अन्त की ओर साढे अठ्यासी (८८१) योजन और ४० योजन जलांत से ऊपर हैं और लवण समुद्रान्त की ओर जलांत से दो कोस ऊंचे हैं। ये बारह हजार योजन के लम्बे चौड़े, पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, बहुसमरमणीय भूमिभाग, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, नाम का प्रयोजन राजधानियां, जो अपने अपने द्वीप के पूर्व में तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में हैं आदि सारा वर्णन पूर्वानुसार समझना चाहिये। कहि णं भंते! बाहिरलावणगाणं सूराणं सूरदीवा णामं दीवा पण्णत्ता? गोयमा! लवणसमुद्दपच्चत्थिमिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुदं पुरथिमेणं बारस जोयणसहस्साइं धायइसंडदीवंतेणं अद्धेगूणणउइं जोयणाइं चत्तालीसं च पंचणउइभागे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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