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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - लवण समुद्र का चक्रवाल विष्कंभ और परिधि १४३ लवण समुद्र का चक्रवाल विष्कंभ और परिधि लवणे णं भंते! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते? गोयमा! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसयसहस्साइं एगासीइसहस्साइं सयमेगूणचत्तालीसे किंचिविसेसूणं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। से णं एक्काए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते चिट्ठइ, दोण्हवि वण्णओ। सा णं पउमवर वेइया अद्धजोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं पंचधणुसयविक्खंभेणं लवणसमुद्दसमियपरिक्खेवेणं, सेसं तहेव।से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाइं जाव विहरइ॥ भावार्थ - हे भगवन्! लवण समुद्र का चक्रवाल-विष्कम्भ कितना है? और उसकी परिधि कितनी कही गई है? हे गौतम! लवण समुद्र का चक्रवाल-विष्कम्भ दो लाख योजन का है और उसकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस (१५,८१,१३९) योजन से कुछ कम है। वह लवण समुद्र एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब ओर से घिरा हुआ है। दोनों का • वर्णन कह देना चाहिए। वह पद्मवरेदिका आधा योजन ऊंची और पांच सौ धनुष प्रमाण चौड़ी है। लवण समुद्र के समान ही उसकी परिधि है। शेष सारा वर्णन जंबूद्वीप की पद्मवरवेदिका के समान कह देना चाहिये। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन का है इत्यादि सारा वर्णन पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये। यावत् वहां बहुत से वाणव्यंतर देव और देवियां अपने पुण्य फल का भोग करते हुए विचरते हैं। लवण समुद्र के द्वार लवणस्सणं भंते! समुदस्स कइ दारा पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि द्वारा पण्णत्ता, तंजहा - विजए वेजयंते जयंते अपराजिए॥ कहिणं भंते! लवण समुदस्स विजए णामंदारे पण्णत्ते? गोयमा! लवणसमुहस्स पुरथिमपेरंते धायइखंडस्स दीवस्स पुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीओयाए महाणईए उप्पिं एत्थ णं लवणस्स समुहस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते अट्ठ जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं चत्तारिजोयणाइं विक्खंभेणं, एवं तं चेव सव्वं जहा जंबुद्दीवस्स विजयसरिसेवि (दारसरिसमेयंपि) रायहाणी पुरथिमेणं अण्णंमि लवणसमुद्दे॥ भावार्थ - हे भगवन्! लवण समुद्र के कितने द्वार कहे गये हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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