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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - जंबू वृक्ष का वर्णन १३१ यावत् विचरते हैं इसलिए ये कंचन पर्वत कहे जाते हैं। इन कंचनदेवों की कंचनिका नामक राजधानियां इन कंचन पर्वतों के उत्तर में असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने पर दूसरे जंबूद्वीप में कही गई है आदि वर्णन विजया राजधानी की तरह कह देना चाहिये। कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरकुराए कुराए उत्तरकुरुहहे णामं दहे पण्णत्ते? गोयमा! णीलवंतहहस्स दाहिणेणं अट्ठचोत्तीसे जोयणसए, एवं सो चेव गमो णेयव्वो जो णीलवंतहहस्स सव्वेसिंसरिसगो दहसरिसणामा य देवा, सव्वेसिं पुरथिमपच्चत्थिमेणं कंचणगपव्वया दस दस एगप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणीओ अण्णंमि जंबुद्दीवे २। चंदबहे एरावणदहे मालवंतद्दहे एवं एक्केक्को णेयव्वो॥१५०॥ भावार्थ - हे भगवन् ! जंबूद्वीप के उत्तरकुरुक्षेत्र का उत्तरकुरु द्रह कहां कहा गया है ? . हे गौतम! नीलवंतद्रह के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और ४ योजन दूर उत्तरकुरुद्रह है आदि सब वर्णन नीलवंतद्रह की तरह समझना चाहिये। सब द्रहों में उसी-उसी नाम के देव हैं। सब द्रहों के पूर्व में, पश्चिम में दस-दस कंचनक पर्वत हैं जिनका प्रमाण समान है। इनकी राजधानियां उत्तर की ओर असंख्य द्वीप समुद्र को पार करने पर दूसरे जंबूद्वीप में हैं। उनका सारा वर्णन विजया राजधानी की तरह कह देना चाहिये। इसी प्रकार चन्द्रद्रह ऐरावतद्रह और मालवंतद्रह के विषय में भी सारा वर्णन कह देना चाहिये। . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में कंचन पर्वतों का वर्णन किया गया है जंबू वृक्ष का वर्णन कहि णं भंते! उत्तरकुराए २ जंबूसुदंसणाए जंबुपेढे णामं पेढे पण्णत्ते? ___ गोयमा! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं गंधमायणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं सीयाए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते पंचजोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं पण्णरस एक्कासीए जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभाए बारस जोयणाई बाहल्लेणं तयाणंतरं च णं मायाए मायाए पएसे परिहाणीए सव्वेसु चरमंतेसु दो कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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