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________________ १२६ जीवाजीवाभिगम सूत्र णीलवंतहहे णामं दहे पण्णत्ते, उत्तरदक्खिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे एगं जोयणसहस्सं आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययाम कूले चउक्कोणे समतीरे जाव पडिरूवे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहि य सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते दोण्हवि वण्णओ॥ भावार्थ- हे भगवन ! उत्तरकरु नामक क्षेत्र में नीलवंत द्रह नाम का द्रह कहां कहा गया है? __ हे गौतम! यमक पर्वतों के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और योजन आगे जाने पर सीता महानदी के ठीक मध्य में उत्तरकुरु क्षेत्र का नीलवंत द्रह नाम का द्रह कहा गया है। यह उत्तर से दक्षिण तक लम्बा और पूर्व-पश्चिम में चौड़ा है। एक हजार योजन इसकी लम्बाई है और पांच सौ योजन इसकी चौडाई है। यह दस योजन गहरा है, स्वच्छ है, मृदु है, इसके किनारे रजतमय है, यह चतुष्कोण और समतीर है यावत् प्रतिरूप है। यह दोनों ओर से पद्मवरवेदिकाओं और वनखंडों से चारों ओर से घिरा हुआ है। दोनों का वर्णन यहां कह देना चाहिये। ___णीलवंतदहस्स णं दहस्स तत्थ २ जाव बहवे तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ भाणियव्वो जाव तोरणत्ति॥ तस्स णं णीलवंतदहस्स णं दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं पउमे पण्णत्ते, जोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं दस जोयणाइं उव्वेहेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ साइरेगाइं दसद्धजोयणाइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते॥ तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा - वइरामया मूला रिट्ठामए कंदे वेरुलियामए णाले वेरुलियामया बाहिरपत्ता जंबूणयमया अब्भिंतरपत्ता तवणिजमया केसरा कणगामई कणिया णाणामणिमया पुक्खरस्थिभुगा॥ __कठिन शब्दार्थ - पउमे - पद्म (कमल), पुक्खरस्थिभुगा - पुष्कर स्तिबुका। भावार्थ - नीलवंत द्रह नामक द्रह में यहां वहां बहुत से त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उनका वर्णन तोरण पर्यन्त कह देना चाहिये। उस नीलवंतद्रह नामक द्रह के मध्यभाग में एक बड़ा कमल कहा गया है। वह कमल एक योजन का लम्बा और एक योजन का चौड़ा है। उसकी परिधि इससे तीन गुनी से कुछ अधिक है। इसकी मोटाई आधा योजन है। यह दस योजन जल के अंदर और दो कोस (आधा योजन) जल से ऊपर है दोनों मिलाकर साढे दस योजन की इसकी ऊंचाई है। उस कमल का वर्णन इस प्रकार कहा गया है - उसका मूल वज्रमय है, कंद रिष्ट रत्नों का है, नाल वैडूर्य रत्नों की है, बाहर के पत्ते वैडूर्यमय है, आभ्यंतर पत्ते जंबूनद स्वर्ण के हैं उसके केसर तपनीय स्वर्ण के हैं, स्वर्ण की कर्णिका है और नाना मणियों की पुष्कर-स्तिबुका है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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