SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? १२५ उप्पलाइं २ जाव सयसहस्सपत्ताइं जमगप्पभाइं जमगवण्णाइं, जमगा य एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव जमगाणं पव्वयाणं जमगाण य रायहाणीणं अण्णेसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव पालेमाणा विहरंति, से तेणटेणं गोयमा! एवंवुच्चइ जमगपव्वया जमगपव्वया, अदुत्तरं च णं गोयमा! जाव णिच्चा॥ . कहि णं भंते! जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! जमगाणं पव्वयाणं उत्तरेणं तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ बारसजोयणसहस्स जहा विजयस्स जाव महिड्डिया० जमगा देवा जमगा देवा॥१४८॥ - भावार्थ - हे भगवन् ! ये यमक पर्वत, यमक पर्वत क्यों कहलाते हैं ? हे गौतम! उन यमक पर्वतों पर स्थान स्थान पर यहां-वहां बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां हैं . यावत् बिलपंक्तियां हैं उनमें बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र सहस्रपत्र हैं जो यमक (पक्षी विशेष) के आकार के हैं, यमक के समान वर्ण वाले हैं और यावत् पल्योपम की स्थिति वाले दो महान् ऋद्धि वाले देव रहते हैं। वे देव.वहां अपने चार हजार सामानिक देवों का यावत् यमक पर्वतों का, यमक राजधानियों का और बहुत से अन्य वाणव्यंतर देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् उनका पालन करते हुए विचरते हैं। इसलिये हे गौतम! वे यमक पर्वत, यमक पर्वत कहलाते हैं। दूसरी बात हे गौतम! यमक पर्वत शाश्वत है यावत् नित्य हैं। . हे भगवन् ! इन यमक देवों की यमका राजधानियां कहां कही गई है? हे गौतम! यमक पर्वतों के उत्तर में तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने पर प्रसिद्ध जंबूद्वीप से भिन्न अन्य जंबूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर यमक देवों की यमका नामक राजधानियां हैं जो बारह हजार योजन प्रमाण वाली आदि सारा वर्णन विजया राजधानी के समान कह देना चाहिये यावत् यमक नाम के दो महर्द्धिक देव उनके अधिपति हैं इसलिये ये यमक देव, यमक देव कहलाते हैं। कहि णं भंते! उत्तरकुराए २ णीलवंतहहे णामं दहे पण्णत्ते? गोयमा! जमगपव्वयाणं दाहिणेणं अट्ठचोत्तीसे जोयणसए चत्तारि सत्तभागा जोयणस्स अबाहाए सीयाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उत्तरकुराए २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy