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जीवाजीवाभिगम सूत्र
२२००० योजन है। कुल ४४००० योजन हुए। इसमें मेरु पर्वत के विष्कम्भ के १०,००० योजन मिलाने पर ५४००० योजन होते हैं। इसमें से दोनों वक्षस्कार पर्वतों के ५००-५०० योजन घटाने पर ५३,००० तिरेपन हजार आते हैं । यही जीवा का प्रमाण है ।
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गंधमादन और माल्यवंत पर्वत की प्रत्येक की लम्बाई ३०२०९ ६६ ३०२०९ योजन है। दोनों
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का कुल परिमाण ६०४१८ योजन होता है। यही प्रमाण उत्तरकुरु के धनुपृष्ट (परिधि) का है।
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उत्तरकुराए णं भंते! कुराए केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णते ?
गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव एवं एगूरुयदीववत्तव्वया जाव देवलोगपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो !, णवरि इमं णाणत्तं - छधणुसहस्समूसिया दोछप्पणा पिट्ठकरंडगसया अट्ठमभत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ तिण्णि पलिओवमाई देसूणाई पलिओवमस्सासंखिज्जइभागेण ऊणगाईं जहण्णेणं, तिण्णि पलिओवमाइं उक्कोसेणं, गूणपण इंदियाइं अणुपालणा, सेसं जहा एगूरुयाणं ॥
उत्तरकुराए णं कुराए छव्विहा मणुस्सा अणुसज्जंति, तंजहा - पम्हगंधा १ मियगंधा २ अम्ममा ३ सहा ४ तेयालीसा ५ सणिच्चारी ६ ॥ १४७ ॥
कठिन शब्दार्थ - आगारभावपडोयारे आकारभावप्रत्यवतार (स्वरूप), दो छप्पणा पिट्ठकरंडगसया - दो सौ छप्पन पसलियां, अणुपालणा अनुपालन, अणुसज्जति उत्पन्न होते हैं, पम्हगंधा-पद्मगंध-पद्म जैसी गंध वाले, मियगंधा- मृगगंध-मृग जैसी गंध वाले, अम्ममा अमम - ममत्वहीन, सहा - सह - सहनशील, तेयालीसा - तेयालीस - तेजस्वी, सण्णिचारी - शनैश्चारी- धीरे चलने वाले ।
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भावार्थ - हे भगवन् ! उत्तरकुरु क्षेत्र का स्वरूप कैसा कहा गया है ?
हे गौतम! उत्तरकुरु का भूमिभाग बहुत सम और रमणीय है। वह भूमिभाग आलिंगपुष्कर (मुरज - मृदंग ) के मढे हुए चमड़े के समान समतल है इत्यादि सारा वर्णन एकोरुक द्वीप के अनुसार समझ लेना चाहिये यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य मर कर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। अंतर इतना है कि इनकी ऊंचाई छह हजार धनुष-तीन कोस की होती है। इनके २५६ पसलियां होती हैं। तीन दिन बाद इन्हें आहार की इच्छा होती है। इनकी स्थिति जघन्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम देशोन तीन पल्योपम की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। ये ४९ दिन तक अपनी संतान ( युगल) का पालन करते हैं। शेष वर्णन एकोरुक मनुष्य की तरह समझना चाहिये ।
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