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________________ १२० जीवाजीवाभिगम सूत्र हे गौतम! वे स्पृष्ट प्रदेश जंबूद्वीपरूप हैं लवण समुद्र रूप नहीं हैं। हे भगवन् ! लवण समुद्र के प्रदेश जंबूद्वीप को स्पृष्ट हैं क्या? हाँ, गौतम! लवण समुद्र के प्रदेश जंबूद्वीप को स्पृष्ट-छुए हुए हैं। हे भगवन् ! वे स्पृष्ट प्रदेश लवण समुद्र रूप हैं या जंबूद्वीप रूप? हे गौतम! वे स्पृष्ट प्रदेश लवण समुद्र रूप हैं, जंबूद्वीप रूप नहीं है। विवेचन - जंबूद्वीप के प्रदेश लवण समुद्र से और लवण समुद्र के प्रदेश जंबूद्वीप से स्पृष्ट-छुए हुए हैं। जंबूद्वीप के चरम स्पृष्ट प्रदेश जंबूद्वीप के ही हैं और लवण समुद्र के चरम स्पृष्ट प्रदेश लवण समुद्र के ही हैं। जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता लवणसमुद्दे पच्चायंति? गोयमा! अत्थेगइया पच्चायति अत्थेगइया णो पच्चायंति॥ लवणे णं भंते! समुहे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता जंबुद्दीवे दीवे पच्चायंति? गोयमा! अत्थेगइया पच्चायंति अत्थेगइया णो पच्चायंति॥१४६॥ कठिन शब्दार्थ - उद्दाइत्ता - अवद्राय-मर कर, पच्चायंति - पैदा होते हैं। भावार्थ - हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में मर कर जीव क्या लवण समुद्र में पैदा होता है? हे गौतम! कोई उत्पन्न होते हैं, कोई उत्पन्न नहीं होते हैं। हे भगवन् ! लवण समुद्र में मर कर जीव क्या जम्बूद्वीप में पैदा होते हैं? , हे गौतम! कोई पैदा होते हैं, कोई पैदा नहीं होते हैं। विवेचन - जीव अपने किये हुए विविध कर्मों के कारण विविध गतियों में उत्पन्न होते हैं अत: जंबूद्वीप में मर कर कोई जीव लवण समुद्र में पैदा होते हैं, कोई नहीं होते। इसी प्रकार लवण समुद्र में मर कर कोई जीव जंबूद्वीप में पैदा होते हैं, कोई पैदा नहीं होते। जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है? से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे दीवे? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं गंधमायणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता, पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया एक्कारस जोयणसहस्साइं अट्ठ बायाले जोयणसए दोण्णि य एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं॥ तीसे जीवा उत्तरओ पाईण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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