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________________ ९० . जीवाजीवाभिगम सूत्र बधाकर वे इस प्रकार बोले - हे देवानुप्रिय! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन प्रतिमाएं रखी गई हैं और सुधर्मा सभा के माणवक चैत्य स्तंभ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत सी जिनसक्थाएं (पृथ्वीकाय की बनी हुई शाश्वत दाढाएं) रखी हुई है जो आप देवानुप्रिय के और विजया राजधानी में रहने वाले बहुत से देवों और देवियों के लिये अर्चनीय, वंदनीय, पूजनीय, सत्कारनीय, सम्माननीय है जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप हैं तथा पर्युपासना करने योग्य हैं। यह आप देवानुप्रिय के लिये पूर्व में भी श्रेयस्कर है, पश्चात् भी श्रेयस्कर है, पूर्व में भी करणीय है और पश्चात् में भी करणीय है। यह आप देवानुप्रिय के लिए पहले और बाद में हितकारी यावत् साथ चलने वाला होगा, ऐसा कह कर वे जोर जोर से जय-जयकार शब्द का प्रयोग करते हैं। - तएणं से विजए देवे तेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हियए (तए णं से विजए देवे) देवसयणिज्जाओ अब्भुढेइ २ त्ता दिव्वं देवदूसजुयलं परिहेइ २ त्ता देवसयणिज्जाओ पच्चोरुहइ २ त्ता उववायसभाओ पुरथिमेणं दारेणं णिग्गच्छइ २ त्ता जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता हरयं अणुपयाहिणं करेमाणे करमाणे पुरथिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसइ २ त्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ २ त्ता हरयं ओगाहइ २ त्ता जलावगाहणं करेइ २ त्ता जलमज्जणं करेइ २ त्ता जलकिड्डं करेइ २ त्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए हरयाओ पच्चुत्तरइ २ त्ता जेणामेव अभिसेयसभा तेणामेव उवागच्छइ २त्ता अभिसेयसभं अणुपयाहिणं करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ २ त्ता जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता सीहासणवरगए पुरच्छाभिमुहे सण्णिसण्णे॥ भावार्थ - वह विजयदेव उन सामानिक परिषद् के देवों से ऐसा सुन कर हृष्टतुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ। वह देवशयनीय से उठता है और उठ कर देवदूष्य युगल धारण करता है, धारण करके देवशयनीय से नीचे उतरता है, उतर कर उपपात सभा के पूर्व द्वार से बाहर निकलता है और जिधर हृद-सरोवर है उधर जाता है जाकर सरोवर की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के तोरण से उसमें प्रवेश करता है और प्रवेश करके पूर्व दिशा के त्रिसोपान प्रतिरूपक से नीचे उतरता है और जल में अवगाहन करता है। जलावगाहन करके जलमज्जन और जलक्रीड़ा करता है। इस प्रकार अत्यंत पवित्र और शूचिभूत होकर सरोवर से बाह अभिषेक सभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है और जिस तरफ सिंहासन रखा है उधर जाता है तथा पूर्व दिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठ जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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