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तृतीय प्रतिपत्ति - विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक
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भावार्थ - उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपात सभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अंदर अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हुआ। तब वह विजयदेव उत्पन्न होते ही पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ। वे पांच पर्याप्तियां इस प्रकार हैं - १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति ३. इन्द्रिय पर्याप्ति ४. आनप्राण-श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और ५. भाषा मन पर्याप्ति (भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति कुछ ही अन्तर से लगभग एक साथ पूर्ण होने के कारण उनकी अलग अलग विवक्षा नहीं की गई है)।
तब उस विजयदेव को पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त होने पर इस प्रकार का अध्यवसाय, चिंतन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयस्कर है, पश्चात् क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिये, मुझे पश्चात् क्या करना चाहिये, मेरे लिये पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा। वह इस प्रकार का चिंतन करता है। .. तएणं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणित्ता जेणामेव से विजय देवे तेणामेव उवागच्छंति तेणामेव उवागच्छित्ता विजयं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतणंसि अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं संणिक्खित्तं चिट्ठइ सभाए य सुहम्माए माणवए
चेइयखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसुबहूओ जिणसकहाओ सण्णिक्खित्ताओ चिट्ठति जाओ णं देवाणुप्पियाणं अण्णेसिं च बहूणं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ एयण्णं देवाणुप्पियाणं पुट्विंपि सेयं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पच्छावि सेयं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पुव्विं करणिज्जं पच्छा करणिज्जं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पुट्विं वा पच्छा वा जाव आणुगामियत्ताए भविस्सइ ति कटु महया महया जय (जय) सदं पउंजंति॥
. भावार्थ - तब उस विजयदेव की सामानिक परिषद् के देव विजयदेव के इस प्रकार के अध्यवसाय, चिंतन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प को उत्पन्न हुआ जान कर जिस ओर विजयदेव था उस ओर आते हैं और आकर विजयदेव को हाथ जोड़ कर, मस्तक पर अंजलि लगा कर जय विजय से बधाते हैं।
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