SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय प्रतिपत्ति - उपपात सभा का वर्णन कुण्डधार प्रतिमाएं विनययुक्त पाद पतित और हाथ जोड़े हुए रखी हुई है । वे सर्वरत्नमयी हैं । स्वच्छ हैं, मृदु हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं घीसी हुई, मंजी हुई, रज रहित, निर्मल निष्पंक यावत् प्रतिरूप हैं। तासि णं जिणप' डमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं अट्ठसयं चंदणकलसाणं एवं असयं भिंगारगाणं एवं आयंसगाणं थालाणं पाईणं सुपइट्ठाणं मणगुलियाणं वायकरगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं हयकंठगाणं जाव उसभकंठगाणं पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं अट्ठसयं तेलसमुग्गाणं जाव धूवकडुच्छुयाणं संणिक्खित्तं चिट्ठइ ॥ तस्स णं सिद्धायतणस्स णं उप्पिं बहवे अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता उत्तिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया तं जहा - रयणेहिं जाव रिट्ठेहिं ॥ १३९॥ कठिन शब्दार्थ - वायकरगाणं - वातकरक- जलशून्य घड़े, लोमहत्थचंगेरीणं - लोमहस्तचंगेरीगोलोम आदि के बने हुए चमरों से अथवा लोमहस्तकों से भरी हुई छबडी, पुप्फपडलगाणं - पुष्प पटलक, उत्तिमागारा- उत्तम आकार के । ८५ भावार्थ - उन जिनप्रतिमाओं के आगे एक सौ आठ घंटा, एक सौ आठ चंदन कलश, एक सौ आठ झारियां तथा इसी तरह आदर्शक, स्थाल, पात्रियां, सुप्रतिष्ठक, मनोगुलिका, वातकरक - जलशून्य घड़े, चित्र रत्नकरंडक, हयकंठक यावत् वृषभकंठक, पुष्पचंगेरियां यावत् लोमहस्त चंगेरियां, पुष्पपटलक, तैल समुद्ग़क यावत् धूप के कडुच्छुक- ये सब एक सौ आठ, एक सौ आठ वहां रखे हुए हैं । उस सिद्धायतन के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के सोलह रत्नों यावत् रिष्ट रत्नों से शोभायमान हैं । विवेचन - उपर्युक्त पाठ में 'लोमहस्त चंगेरी' शब्द आया है इसका अर्थ यह होता है - गो लोम आदि के बने हुए चमरों से अथवा लोमहस्तकों से भरी हुई छबड़ी । ऊन आदि के रोमों से बनी हुई जैसी प्रतिमा आदि को पूंजने में काम आने वाली पूंजनी को लोमहस्तक कहा जाता है । उपपात सभा का वर्णन तस्स णं सिद्धायतणस्स णं उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं उववायसभा पण्णत्ता जहा सुहम्मा तहेव जाव गोमाणसीओ उववायसभाए वि दारा मुहमंडवा सव्वं भूमिभागे तहेव जाव मणिफासो (सुहम्मासभा वत्तव्वया भाणियव्वा जाव भूमीए फासो ) ॥ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा जाव पडिरूवा, तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, तस्स णं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy