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________________ ७४ जीवाजीवाभिगम सूत्र ५. कषाय द्वार - इनके क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चारों कषाएं होती है। ६. संज्ञा द्वार - इनके चारों संज्ञाएँ होती हैं। ७. लेश्या द्वार - इन जीवों के कृष्ण, नील, कापोत - ये तीन लेश्याएं होती हैं। ८. इन्द्रिय द्वार - इनके स्पर्शन , रसना, घ्राण (नाक), आंख और कान ये पांचों इन्द्रियां होती हैं। ९. समुद्घात द्वार - जलचर सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रियों के वेदना, कषाय और मारणांतिक, ये तीन समुद्घात होते हैं। १०. संज्ञी द्वार - ये संज्ञी नहीं, असंज्ञी होते हैं। सम्मूर्छिम होने के कारण इनके मन नहीं होता है। ११. वेद द्वार - ये जीव नपुंसकवेद वाले होते हैं। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते। १२. पर्याप्ति द्वार - इन जीवों के पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ होती हैं। उनके मनःपर्याप्ति नहीं होती है। १३. दृष्टि द्वार - ये जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। १४. दर्शन द्वार - इनके दो दर्शन-चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन होते हैं। १५. ज्ञान द्वार - इन जीवों के दो ज्ञान (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान) और दो अज्ञान (मतिअज्ञान, . श्रुत अज्ञान) होते हैं। १६. योग द्वार - इनके वचन योग और काय योग होते हैं। १७. उपयोग द्वार - ये साकार उपयोग वाले भी होते हैं और अनाकार उपयोग वाले भी होते हैं। १८. आहार द्वार - इनका आहार छह दिशाओं से आगत पुद्गल द्रव्यों का होता है क्योंकि ये लोक के मध्य में ही रहते हैं। १९. उपपात द्वार - जलचर सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रियों में तिर्यंचों और मनुष्यों से आये हुए जीव उत्पन्न होते हैं। देवों और नैरयिकों से आये हुए जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। जो तिर्यंचों से आते हैं वे असंख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। मनुष्यों में अकर्मभूमिक और अन्तरद्वीप के जो मनुष्य असंख्यात वर्ष की आयु वाले हैं वे उत्पन्न नहीं होते हैं। २०. स्थिति द्वार - इन जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट एक पूर्व कोटि की होती है। • २१. समवहत द्वार - जलचर सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय जीव मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। २२. उद्वर्तना द्वार - ये सम्मूर्छिम जलचर जीव मर कर चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। यदि नरक में उत्पन्न होते हैं तो रत्नप्रभा नरक में ही उत्पन्न होते हैं इससे आगे नहीं। तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो सभी प्रकार के तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं अर्थात् संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों में भी उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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