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________________ ४४ जीवाजीवाभिगम सूत्र भावार्थ - बादर अप्कायिक का क्या स्वरूप है? बादर अप्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। यथा - ओस, हिम यावत् अन्य भी इसी प्रकार के जल रूप। वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा - पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इस प्रकार पूर्ववत् कह देना चाहिए। विशेषता यह है कि उनका संस्थान स्तिबुक (बुदबुद) है। उनमें चार लेश्याएं पाई जाती है। वे नियम से छहों दिशाओं का आहार ग्रहण करते हैं। तिर्यंच, मनुष्य और देवों से उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की होती है। शेष सारा वर्णन बादर पृथ्वीकायिकों की तरह समझ लेना चाहिये यावत् वे दो गति वाले तीन आगति वाले हैं। प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। हे आयुष्मन् श्रमण! यह बादर अप्कायियों का वर्णन हुआ इसके साथ ही अप्कायिकों का निरूपण पूर्ण हुआ। विवेचन - बादर अप्कायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं। प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार उनके भेद इस प्रकार हैं - ओस, हिम, महिका, करक, हरतनु, शुद्धोदक, शीतोदक, उष्णोदक, क्षारोदक, खट्टोदक, आम्लोदक, लवणोदक, वारुणोदक, क्षीरोदक, घृतोदक, क्षोदोदक और रसोदक आदि और भी इसी प्रकार के पानी हैं वे सब बादर अप्कायिक समझने चाहिये। वे बादर अप्कायिक दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। बादर अप्कायिक जीवों के विषय में २३ द्वारों से निरूपण बादर पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिये। जिन द्वारों में अन्तर है वे इस प्रकार है - . १. संस्थान द्वार - बादर अप्कायिक जीवों का संस्थान बुद्बुद् के आकार का है। २. स्थिति द्वार - बादर अप्कायिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की समझना चाहिये। शेष सारा वर्णन बादर पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिये यावत् हे आयुष्मन् श्रमण! वे अप्कायिक जीव प्रत्येक शरीरी और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण कहे गये हैं। यह बादर अप्कायिकों का निरूपण हुआ। इसी के साथ अप्कायिकों का वर्णन पूरा हुआ। वनस्पतिकायिक जीवों का वर्णन से किं तं वणस्सइकाइया? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता तंजहा - सुहुम वणस्सइकाइया य बायर वणस्सइकाइया। भावार्थ - वनस्पतिकायिक जीवों का क्या स्वरूप है? वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और २. बादर वनस्पतिकायिक। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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