SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ जीवाजीवाभिगम सूत्र २. श्रुतज्ञान - मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ से सम्बन्धित किसी दूसरे पदार्थ के ज्ञान को 'श्रुतज्ञान' कहते हैं। जैसे 'घट' शब्द सुनने के अनन्तर उत्पन्न हुआ कंबुग्रीवादि रूप का ज्ञान। ३. अवधिज्ञान - मन व इन्द्रियों की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए जो रूपी पदार्थ को स्पष्ट जाने।. ४. मनःपर्यवज्ञान - मन व इन्द्रियों की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिये हुए जो साधु संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मन में रहे हुए रूपी पदार्थों को स्पष्ट जाने। . ५.केवलज्ञान - जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को हस्तामलकवत् स्पष्ट जाने। मिथ्याज्ञान के तीन भेद हैं - १. मति अज्ञान २. श्रुत अज्ञान ३. विभंग ज्ञान। ये तीन अज्ञान हैं। • सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं अत: उनमें ज्ञान नहीं पाया जाता है। उनमें नियम पूर्वक दो अज्ञान-मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान पाते हैं। . १६. योग द्वार ते णं भंते! जीवा किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी? गोयमा! णो मणजोगीणो वयजोगी कायजोगी। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वे जीव क्या मनयोगी होते हैं, वचन योमी होते हैं या काय योगी होते हैं? उत्तर - हे गौतम! वे मनयोगी नहीं होते, वचन योगी नहीं होते किन्तु काययोगी होते हैं। ... विवेचन - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को 'योग' कहते हैं। इसके पन्द्रह भेद हैं - ४ मन के, ४ वचन के और ७ काया के। मन के चार भेद इस प्रकार हैं - १. सत्य मनोयोग २. असत्य मनोयोग ३. मिश्र मनोयोग और ४. व्यवहार मनोयोग। वचन के चार भेद इस प्रकार हैं - १. सत्य वचन योग २. असत्य वचन योग ३. मिश्र वचन योग और ४. व्यवहार वचन योग। काया के सात भेद इस प्रकार हैं - १. औदारिक शरीर काय योग २. औदारिक मिश्र शरीर काय योग ३. वैक्रिय शरीर काय योग ४. वैक्रिय मिश्र शरीर काय योग ५. आहारक शरीर काय योग ६. आहारक मिश्र शरीर काय योग ७. कार्मण शरीर काययोग। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के मन योग और वंचन योग नहीं होता, उनके केवल काय योग ही होता है। काय योग के सात भेदों में से उनके तीन योग पाते हैं - १. औदारिक शरीर काय योग २. औदारिक मिश्र शरीर काय योग और ३. कार्मण शरीर काय योग। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy