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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का योनि संग्रह दो प्रकार का कहां गया है। यथा - पोतज और सम्मूच्छिम पोतज का क्या स्वरूप है ? २७४ पोतज तीन प्रकार के कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं- स्त्री, पुरुष और नपुंसक। उनमें से जो सम्मूर्च्छिम हैं वे सब नपुंसक हैं। 1 विवेचन - यहां चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय जीवों का योनि संग्रह दो प्रकार का ही कहा गया है१. पोतज और २. सम्मूर्च्छिम । क्योंकि यहां पोतज में अण्डजों से भिन्न जितने भी जरायुज या अजरायुज गर्भज जीव हैं उनका समावेश कर दिया गया है, अतएव दो प्रकार का योनिसंग्रह कहा है अन्यथा गौ आदि जरायुज हैं और सर्पादि अण्डज हैं ये दो प्रकार और एक सम्मूर्च्छिम, यों तीन प्रकार. का योनिसंग्रह कहा जाता है। लेकिन यहां दो ही प्रकार का कहा है, अतएव पोतज में जरायुज अजरायुज सब गर्भजों का समावेश समझना चाहिये। जरायुज डोरें के समान और अजरायुज कपड़े के समान दिखते हैं। तेसि णं भंते! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ ? सेसं जहा पक्खीणं णाणत्तं ठिई जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाइं, उव्वट्टित्ता चउत्थिं पुढविं गच्छंति, दसजाईकुलकोडी० ॥ भावार्थ - हे भगवन् ! उन जीवों के कितनी लेश्याएं कही गई हैं ? इत्यादि सारा वर्णन खेचरों (पक्षियों) की तरह समझना चाहिये । विशेषता यह है कि इनकी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है और मर कर यदि नरक में जावे तो चौथी नरक पृथ्वी तक जाते हैं। इन जीवों की जातिकुलकोडी दस लाख है। जलयरपंचेंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा ? जहा भुयपरिसप्पाणं णवरं उवट्टित्ता जाव अहेसत्तमं पुढविं अद्धतेरस जाइकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता । भावार्थ - जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों से संबंधित पृच्छा ? जिस प्रकार भुजपरिसर्पों के लिये कहा है उसी प्रकार कह देना चाहिये किंतु विशेषता यह है कि जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मर कर यदि नरक में जावे तो सातवीं नरक पृथ्वी तक जाते हैं। इनकी साढ़े बारह लाख जातिकुलकोडी कही गई है। चउरिंदियाणं भंते! कइ जाईकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता ? गोमा ! णव जाईकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा समक्खाया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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