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तृतीय प्रतिपत्ति - तृतीय नैरयिक उद्देशक - नैरयिकों का विकुर्वणा काल
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कठिन शब्दार्थ - एत्थ किर - यह गाथा कहनी चाहिये, अइवयंति - प्रायः जाते हैं, णरवसभानरवृषभ-लौकिक दृष्टि से बड़े समझें जाने वाले और अति भोगासक्त, केसवा - वासुदेव, मांडलियरायाणो- मांडलिक राजा।
भावार्थ - इस सप्तम पृथ्वी में प्रायः करके नरवृषभ - वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महारंभ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं।
विवेचन - वासुदेव जो नरवृषभ-बाह्य भौतिक दृष्टि से बहुत महिमा वाले, बल वाले, समृद्धि वाले और कामभोग आदि में अत्यंत आसक्त होते हैं वे बहुत युद्ध आदि संहार रूप प्रवृत्तियों में तथा परिग्रह एवं भोगादि में आसक्त होने के कारण प्रायः सातवीं नरक में उत्पन्न होते हैं। इसी तरह तंदुलमत्स्य जैसे जलचर भाव हिंसा और क्रूर अध्यवसाय वाले, वसु आदि मांडलिक राजा तथा सुभूम जैसे चक्रवर्ती तथा महारंभ करने वाले कालसौकरिक जैसे गृहस्थ प्रायः इस सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। इस तरह सातवीं पृथ्वी में कैसे जीव जाते हैं इसका उल्लेख इस गाथा में किया गया है।
गाथा में आया हुआ 'अइवयंति' शब्द 'प्रायः' का सूचक है तथा एत्थ' पद से सप्तम पृथ्वी का ग्रहण करना चाहिये।
. नैरयिकों का विकुर्वणा काल भिण्णमुहत्तो णरएस, होइ तिरियमणुएसुचत्तारि। देवेसु अद्धमासो, उक्कोस विउव्वणा भणिया॥२॥
भावार्थ - नैरयिकों में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यंच और मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त और देवों में अर्द्धमासपन्द्रह दिन का उत्तर विकुर्वणा का उत्कृष्ट अवस्थानकाल कहा है।
विवेचन - प्रस्तुत गाथा में नैरयिकों की तथा प्रसंगवश अन्य की भी विकुर्वणा का उत्कृष्ट काल बताया गया है जो इस प्रकार है- नैरयिकों की विकुर्वणा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। तिर्यंच और मनुष्यों की विकुर्वणा उत्कृष्ट चार अंतर्मुहूर्त तथा देवों की विकुर्वणा उत्कृष्ट पन्द्रह दिन तक रहती है। ____ चार भिन्न मुहूर्त - नारकी के वैक्रिय का भिन्न मुहूर्त ११ मिनट लगभग समझना एवं मनुष्य तिर्यंच के वैक्रिय की स्थिति ४४ मिनिट रूप ४ भिन्न मुहूर्त रूप समझना। नारकी से चार गुणा बताने के लिए ही 'चत्तारि भिण्ण मुहुत्तो' कहा है।
देवों में अर्द्धमास - विकुर्वित वस्तु का निर्माण करते समय ही आत्मप्रदेशों का कार्य होता है, बाद में नहीं। समुद्घात को वस्तु निर्माण के समय ही माना जाता है। किंतु आत्मप्रदेशों का संचरण मूल शरीरवत् बाद में चालू रहने पर भी नहीं माना जाता है। देवों में १५ दिन के बाद विकुर्वित वस्तु स्वतः नष्ट हो जाती है। मनुष्य को तो अंतर्मुहूर्त में पुनः समुद्घात करना ही पड़ता है।
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