________________
तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशकभरकों में शीत. उष्ण वेदना
हामेल होंगीचमके कीबेंत, मुद्रस्तधामुहीक आघातासे घने और पुष्ट बने हुए अवर्षा वाला होजो रिकाउत्साहायुक्त हो, जो बहत्तर कला निपुण, दक्ष हितमितभाषी, कार्यकुशल, रिपुमा बुद्धिमान और निपुण शिल्पयुक्त हो वह एक पानी से भरे हुए छोटे घड़े के समान बड़े लोहे के पिण्ड को लेकर उसे तपा-तपाकर, कूट-कूट कर, काट काट कर उसका चूर्ण बनावे ऐसा एक दिन, दो दिर, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ऐसा ही करता रहे अर्थात् चूर्ण का गोला बना कर उसी क्रम से चूणादि करता रहे और गोला बनाता रहे, ऐसा करने से वह मजबूत फौलाद का गोला बन जागा फिर उसे ठंडा कर उस ठंड लोहे के गोले की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से उष्ण वेदनाबाले नरकों में रख दे, इस विचार के साथ कि एक उन्मेष-निमेष (पल भर) में उसे फिर लिवालल्लूगामेरालु बिहा साप में ही उसे प्रस्फुतिरसूटता हुआ देखता है, अपनन की तरह गलताः हुआ देखता है भस्मीभूत लेते हुए देखता है। मह लुहार कुछ लड़का उस लोहे के गोले को अस्फुक्ति, अगलित, अविध्वस्त रूप में पुनः निकाल पाने में समर्थ नहीं होता है।
प्राणी, विवेचन - उष्ण वेदना वाले नरकों में इतनी भीषण उष्णता है कि लोहे का फौलादी गोला भी वहां की उष्णता से क्षण भर में पिघल कर नष्ट हो जाता है। - FIRISHWASE IS
से जहा णामए मत्तमातंगे दुपए कुंजरे सविहायुप्पो पढमसरयकालसमायसि वा चरमणिदाघकालसमयंसि वा उण्डाभिहए तण्हाभिहए दवाग्गिजालाभिहए आरे सुसिए पिकासार तुब्बले किलते सक्कं महं युवतरिणि पासेन्जा चाउक्लोणं समती अणुपुत्वसुजाधवप्पालंभीर सीयलजलं संछण्णपसभिसमुगाल बहुउप्पल-कुमुय-गलिगसुभम सोगंधिय पुंडीय महापुंडरीय सयक्त-सहस्सपत्त-केसरफुल्लोवचियं छप्पय
छविमलसालला
Tansent पार हत्थभमतमच्छकच्छभ
अणगसउणगणमिहुणयविरक्य सदुण्णइयमहरसरणाइ तपासईत पासित्तात आगाहइ ओगाहित्ती सण तत्थ उण्ह पि पविणज्जा तण्ह पि प्रविणेज्जा खह पिपविणेज्जा जर
पि पविणेज्जा दाह पि पविणेज्जा णिहाएज्ज वा पयलाएज्ज वा सई वा रई वा धिई वा. मई वा उवलभेजा, सीए सीयभूए संकसमाणे संकसमापो सायासोक्खबहुले यावि विहरेज्जा, एवामेव गोयमा! असब्भावपकवणाए उसिमाबेयणिपजेहिंतो मासाहितो पोरङ्गए उव्वट्टिए समायोजाइमाई मणुस लोयसि भवंति गोलिया लिंगाणि वा सोडिवालिंगाणि वाधमिडियालिंगाणिवा अयागराणि वा तंबामराणि वा तयागराणि वा सीसागराणि वा रूप्पागराणि वा सुवण्णामसणि 'वा हिरण्णामराणि वा कुंभारागणी वा मुसागणीई
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org