________________
तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशक - नैरयिकों में दृष्टि
२३७
विवेचन - नैरयिकों में लेश्या विषयक भगवती सूत्र में कही गई संग्रहणी गाथा इस प्रकार है - काऊ दोसु तइयाए मीसिया णीलिया चउत्थीए। पंचभियाए मीसा कण्हा तत्तो परम कण्हा।
अर्थात् - रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा इन दोनों पृथ्वियों में कापोत लेश्या होती है। तीसरी बालुकाप्रभा में मिश्र-नील और कापोत ये दो लेश्याएं होती हैं। चौथी पंकप्रभा में नील लेश्या होती है। पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी में मिश्र-कृष्ण लेश्या और नील लेश्या, ये दो लेश्याएं होती हैं। छठी तमःप्रभा पृथ्वी में कृष्ण लेश्या और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या होती है। ___ आगमों में तो सर्वत्र सातवीं नरक के नैरयिकों में परम कृष्ण लेश्या ही बताई है। महाकृष्ण लेश्या नहीं बताई है। तथापि भाषा (थोकड़े) में उसी अर्थ में 'महा' शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः 'महा' शब्द के प्रयोग को अनुचित नहीं समझा जाता है फिर भी आगमकारों द्वारा प्रयुक्त 'परम' शब्द का प्रयोग करना तो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होने से विशेष उचित ही रहता है। इस शब्द के प्रयोग करने में आगमकारों के अन्य भी अनेकों आशय हो सकते हैं। सातवीं नरक में सात कर्मों का उत्कृष्ट बंध , होना प्रज्ञापना सूत्र के २३ वें पद में बताया है। अन्य किसी भी दण्डकों में इससे अधिक संक्लिष्ट . परिणाम संभव नहीं होने से पूज्य गुरुदेव सातवीं नरक की परमकृष्ण लेश्या को सर्वोच्च स्तर की फरमाया करते थे। ऐसे परिणाम मनुष्य आदि में होने पर उनकी लेश्या भी परमकृष्ण ही समझनी चाहिये। इससे अधिक संक्लिष्ट कृष्ण लेश्या अन्यत्र कहीं पर भी नहीं होती है।
_ 'परम' शब्द अतिशय वाचक होने से 'महा' शब्द की अपेक्षा विशेष वजनदार व महत्त्वपूर्ण होने से इसका प्रयोग करना उचित ही रहता है।
नैरयिकों में दृष्टि इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी?
गोयमा! सम्मदिट्ठी वि मिच्छादिट्ठी वि सम्मामिच्छादिट्ठी वि, एवं जाव अहेसत्तमाए॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक क्या सम्यग्दृष्टि हैं मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ?
उत्तर - हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी हैं। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी तक समझना चाहिये।
विवेचन - नैरयिक जीव सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्-मिथ्यादृष्टि तीनों तरह के होते हैं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org