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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - द्वितीय नैरयिक उद्देशक - नैरयिकों का श्वासोच्छ्वास व आहार आदि २३५ गोयमा ! काला कालोभासा जाव परम किण्हा वण्णेणं पण्णत्ता, एवं जाव असत्तमाए । इसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्याणं सरीरया केरिसया गंधेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए अहिमडेइ वा तं चेव जाव अहेसत्तमा । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं सरीरया केरिसया फासेणं पण्णत्ता ? गोयमा! फुंडियच्छविविच्छविया खरफरुसझामझुसिरा फासेणं पण्णत्ता, एवं जाव अहेसत्तमा ॥ ८७ ॥ कठिन शब्दार्थ - फुडियच्छविविच्छविया स्फुटितच्छविविच्छवयः - चमड़ी फटी हुई एवं झुर्रियों वाली होने से छाया- कांति रहित, खरफरुसझामझुसिरा - खरपरुषध्माम शुषिराणि कठोर स्पर्श और छिद्र वाली होने से जिसकी छाया जली हुई वस्तु जैसी है। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के शरीर, वर्ण से किस प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के शरीर काले, कालीप्रभा वाले यावत् अत्यंत काले कहे गये हैं । इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये । - प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरियकों के शरीर की गंध कैसी कही गई है ? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरियकों के शरीर की गंध जैसे कोई मृत सर्प का कलेवर हो इत्यादि पूर्ववत् कह देना चाहिये। इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी तक के नैरियकों के शरीर की गंध के विषय में समझना चाहिये । प्रश्न - हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरियकों के शरीरों का स्पर्श किस प्रकार का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के शरीर की चमड़ी फटी हुई होने से तथा झुर्रियाँ होने से छाया (कांति) रहित है, कठोर है, छेद चाली है और जली हुई वस्तु की तरह खुरदरी है। इसी प्रकार अधः सप्तम पृथ्वी तक कह देना चाहिये । विवेचन जिस प्रकार नरकावासों के वर्ण, गंध आदि के विषय में पूर्व में कहा है उसी प्रकार सातों नरक पृथ्वियों के नैरयिकों के शरीर के वर्ण, गंध, स्पर्श आदि के बारे में समझना चाहिये। श्वासोच्छ्वास व आहार आदि इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढंवीए णेरइयाणं केरिसया पोग्गला ऊसासत्ताए परिणमंति ? Jain Education International — For Personal & Private Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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