SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .१९६ जीवाजीवाभिगम सूत्र विवेचन - ये सातों नरक पृथ्वियाँ किसके आधार पर स्थित है ? इस शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि आकाश के आधार पर तनुवात, तनुवात के आधार पर घनवात और घनवात पर घनोदधि तथा घनोदधि पर ये रत्नप्रभा आदि पृथ्वियाँ स्थित हैं। तत्त्वार्थ सूत्र अ० ३ में भी कहा है - . 'रत्नशर्कराबालुका पंकधूमतमोमहातमः प्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोधः पृथुत्तराः' ये सातों नरकपृथ्वियाँ एक दूसरे के नीचे हैं परन्तु बिल्कुल सटी हुई नहीं है। इनके बीच में बहुत अन्तर है। इस अन्तर में घनोदधि, घनवात, तनुवात और शुद्ध आकाश नीचे-नीचे हैं। प्रथम नरक पृथ्वी के नीचे २० हजार योजन का घनोदधि है, इसके नीचे असंख्यात हजार योजन का घनवात है, इसके नीचे असंख्यात हजार योजन का तनुवात है इसके नीचे असंख्यात हजार योजन का आकाश है। . आकाश के बाद दूसरी नरक पृथ्वी है। दूसरी नरक पृथ्वी और तीसरी नरक पृथ्वी के बीच में भी इसी प्रकार क्रमशः घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश है। इसी तरह सातवीं नरक पृथ्वी तक समझना चाहिये। शंका-तनुवात के आधार पर घनवात और घनवात के आधार पर घनोदधि कैसे ठहर सकती है? समाधान - इस शंका के समाधान में दो उदाहरण इस प्रकार समझने चाहिये - १. कोई व्यक्ति मशक (वस्ती) को हवा से फुला दे। फिर उसके मुंह को फीते (डोरी) से मजबूत गांठ दे कर बांध दे तथा उस मशक के बीच के भाग को भी बांध दे। ऐसा करने से मशक में भरी हुई हवा के दो भाग हो जाएंगे अब उस मशक के ऊपरी भाग का मुंह खोल कर हवा निकाल दे और उसके स्थान पर पानी भर कर फिर उस मशक का मुंह बांध दे और बीच का बन्धन खोल दे। तब ऐसा होगा कि जो पानी उस मशक के ऊपरी भाग में है वह ऊपर के भाग में ही रहेगा अर्थात् नीचे भरी हुई वायु के ऊपर ही वह पानी रहेगा, नीचे नहीं जा सकता। जैसे वह पानी नीचे भरी वायु के आधार पर ऊपर ही टिका रहता है . उसी प्रकार घनवात के ऊपर घनोदधि रह सकता है। २. जैसे कोई व्यक्ति हवा से भरे हुए डिब्बे या मशक को कमर पर बांध कर अथाह जल में प्रवेश करे तो वह जल के ऊपरी सतह पर ही रहेगा, नीचे नहीं डूबेगा। वह जल के आधार पर स्थित रहेगा उसी प्रकार घनोदधि पर पृथ्वियां टिकी रह सकती है। - रत्नादि कांडों की मोटाई इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? गोयमा! सोलस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy