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________________ द्वितीय प्रतिपत्ति - नपुंसक की कायस्थिति (संचिट्ठणा) . १६५ प्रश्न - हे भगवन्! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? उत्तर - हे गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक नपुंसक रूप में निरन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्व कोटि पृथक्त्व तक रह सकते हैं। इसी प्रकार जलचर तिर्यंच, चतुष्पद स्थलचर उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर नपुंसकों की कायस्थिति के विषय में समझना • चाहिये। प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्य नपुंसक के विषय में पृच्छा? उत्तर - हे गौतम! मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्व कोटि पृथक्त्व की है। धर्माचरण की अपेक्षा कायस्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि की है। इसी प्रकार कर्मभूमिज भरत, ऐरवत, पूर्वविदेह, पश्चिम विदेह नपुंसकों के विषय में भी कह देना चाहिये। प्रश्न - हे भगवन्! अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक, अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? . उत्तर - हे गौतम! अकर्मभूमिज मनुष्य नपुंसक, अकर्मभूमिज मनुष्य, नपुंसक के रूप में निरन्तर जन्म की अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्त पृथक्त्व तक तथा संहरण की अपेक्षा जघन्य अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक उसी रूप में रह सकता है। _ विवेचन - पूर्व सूत्र में नपुंसक की भवस्थिति बताने के बाद इस सूत्र में उनकी कायस्थिति बताई गई है। किसी दूसरी जाति में जन्म न धारण करके किसी एक ही जाति में-पर्याय में लगातार जन्म धारण करते रहना कायस्थिति है। उसे संचिट्ठणा भी कहते हैं। सामान्य नपुंसक, नपुंसक पर्याय को छोड़े बिना लगातार जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रह सकता है। कोई जीव उपशम श्रेणी पर आरूढ हुआ वहाँ उसने नपुंसक वेद का उपशम किया और उपशम श्रेणी से गिरा। नपंसक वेद का उदय हो जाने पर एक समय के बाद काल कर देव हो गया. परुष वेद का उदय हो गया, इस प्रकार जघन्य एक समय की कायस्थिति हुई। उत्कृष्ट वनस्पतिकाल, वनस्पतिकाल आवलिका के असंख्यात भाग के जितने समय हैं उतने पुद्गल परावर्तकाल का होता है इस काल में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनंत अवसर्पिणियां व्यतीत हो जाती है। - नैरयिक मर कर नैरयिक नहीं होते अत: उनकी भवस्थिति ही कायस्थिति समझनी चाहिये। सभी नैरयिक नियमा नपुंसक वेदी ही होते हैं। अत: यहां पर नैरयिक नपुंसक की कायस्थिति उसकी भवस्थिति के समान है। . सामान्य तिर्यंच नपुंसक की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004194
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages370
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size8 MB
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