SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कध २ है वह आर्य तथा समस्त दुःखों का नाश करने वाला एकान्त सम्यक् और उत्तम है। तीसरा स्थान जो कुछ पापों से निवृत्ति और कुछ से अनिवृत्ति है वह आरम्भ नोआरम्भ स्थान कहलाता है यह भी आर्य तथा समस्त दुःखों का नाशक एकान्त सम्यक् और उत्तम है । एवमेव समणुगम्ममाणा इमेहिं चेव दोहिं ठाणेहिं समोयरंति, तं जहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव, तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए, तत्थ णं इमाई तिण्णि तेवट्ठाइं पावादुय-सयाई भवंतीति मक्खायाई, तं जहा-किरियावाईणं, अकिरियावाईणं, अण्णा-णियवाईणं, वेणइयवाईणं, तेऽवि परिणिव्वाणमाहंसु तेवि मोक्खमाहंसु ते वि लवंति सावगा ते वि लवंति सावइत्तारो ॥४०॥ ___ कठिन शब्दार्थ - तिण्णि तेवट्ठाइं पावादुय सयाई - तीन सौ तिरसठ प्रावादुक, लवंति - कथन करते हैं, सावइत्तारो - श्रावयितारः-धर्मोपदेश सुनाने वाले-वक्ता। भावार्थ और विवेचन - वस्तुतः धर्म और अधर्म ये दो ही पक्ष हैं क्योंकि मिश्रपक्ष भी धर्म और अधर्म से मिश्रित होने के कारण इन्हीं के अन्तर्गत हैं । दूसरे मतमतान्तर जो क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादियों के ३६३ भेद वाले पाये जाते हैं वे भी धर्म तत्त्व से रहित और मिथ्या होने के कारण अधर्म पक्ष के ही अन्तर्गत है । उक्त मत मतान्तर यद्यपि मोक्ष भी मानते हैं तथापि उनकी मान्यता विवेक रहित और मिथ्या होने के कारण संसार का ही वर्धक है, मोक्षप्रद नहीं है। बौद्धों की मान्यता है कि - "ज्ञान सन्तति का आधार कोई आत्मा नहीं है किन्तु ज्ञान सन्तति ही आत्मा हूँ । उस ज्ञान सन्तति का कर्म सन्तति के प्रभाव से अस्तित्व है जो संसार कहलाता है और उस कर्मसन्तति के नाश होने से ज्ञानसन्तति का नाश हो जाता है इसी को मोक्ष कहते हैं ।" इस प्रकार का सिद्धान्त मानने वाले बौद्ध यद्यपि मोक्ष का नाम अवश्य लेते हैं और उसके लिए प्रयत्न भी करते हैं परन्तु यह सब इनका अज्ञान है क्योंकि ज्ञान सन्तति से कथंचित् अतिरिक्त और उनका आधार एक आत्मा अवश्य है अन्यथा जिसको मैंने देखा है उसी को स्पर्श करता हूँ इत्यादि संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता है अतः ज्ञान सन्तति से अतिरिक्त उनका आधार एक आत्मा अवश्य मानना चाहिये। वह आत्मा अविनाशी है इसलिए मोक्षावस्था में उसके अस्तित्व का नाश मानना भी बौद्धों का अज्ञान है। मोक्ष में यदि आत्मा का अस्तित्व ही न रहे तो उसकी इच्छा मूर्ख भी नहीं कर सकता फिर विद्वानों की तो बात ही क्या है ? अतः बौद्धमत एकान्त मिथ्या और अधर्म पक्ष में ही मानने योग्य है । . इसी तरह सांख्यवाद भी अधर्म पक्ष में ही गिनने योग्य है । वह आत्मा को कूटस्थ नित्य कहता है परन्तु आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने पर संसार और मोक्ष दोनों ही नहीं बन सकते । आत्मा जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy