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________________ अध्ययन २ १. केवलज्ञान केवल दर्शन प्राप्त करके उसी भव में सिद्ध बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त हो जाता है। २. यदि कुछ कर्म बाकी रह जाय तो फिर महा ऋद्धि सम्पन्न एक भवावतारी देव हो जाता है। ८३ अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ । इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति; तं जहा- अप्पिच्छा, अप्पारम्भा, अप्परिग्गहा, धम्मिया, धम्माणुया, जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति । सुसीला, सुव्वया, सुपडियाणंदा, साहू, एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए एगच्चाओ अप्पडिविरया जाव जे यावण्णा तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मता परपाणपरितावण-करा कति तओ वि एगच्चाओ अप्पडिविरया । भावार्थ - अब तीसरा स्थान जो मिश्र स्थान है उसका विचार किया जाता है - इस स्थान में धर्म और अधर्म दोनों ही मिश्रित हैं, इसलिए इसे मिश्र कहते हैं यद्यपि यह अधर्म से भी युक्त है तथापि अधर्म की अपेक्षा इसमें धर्म का अंश इतना अधिक है कि उसमें अधर्म बिलकुल छिपा हुआ सा है । जैसे चन्द्रमा की हजार किरणों में कलंक छिप जाता है इसी तरह इस स्थान में धर्म से अधर्म छिपा हुआ है। अतः इस स्थान की धर्म पक्ष में ही गणना की जाती है । जो पुरुष अल्प इच्छा वाले, अल्प आरम्भ A Jain Education International करने वाले, अल्प परिग्रही, धार्मिक, धर्म की अनुज्ञा देने वाले, सुशील और उत्तमव्रतधारी हैं वे इस -स्थान में माने जाते हैं । वे पुरुष स्थूल प्राणातिपात आदि से निवृत्त और सूक्ष्म से अनिवृत्त होते हैं । वे यन्त्रपीड़न और निर्वाञ्च्छन आदि कर्मों से भी निवृत्त होते हैं । पावा, से जहा णामए समणोवासगा भवंति - अभिगय-जीवाजीवा, उवलद्ध-पुण्ण आसव-संवर-वेयणा- णिज्जरा-किरिया - हिगरण-बंध- मोक्ख-कुसला, असहेज्ज- देवासुर-णाग- सुवण्ण-जक्ख रक्खस- किण्णर- किंपुरिस-गरुल गंधव्वमहोरगाएइहिं देवगणेहिं णिग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जा, इणमेव णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया, णिक्कंखिया, णिव्वितिगिच्छा, लद्धट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, विणिच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा, अँट्रिमिजापेमानुसयस्ता अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अट्ठे, अयं परमट्ठे, सेसे अणट्टे ।' उसिय-फलिहा, अवंगुय-दुवारा अचियत्तंतेउरपरघर-पवेसा, चाउद्दट्ठ - मुदिट्ठ- पुण्णिमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा, समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं वत्थ-. पडिग्गह- कंबल - पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पीठ-फलग-सेज्जा - संथारएणं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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