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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
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हार से सुशोभित छाती वाले, कटक और केयूर आदि भूषणों से युक्त हाथ वाले, विचित्र भूषणों से युक्त हाथ वाले, विचित्र मालाओं से सुशोभित मुकुट वाले, कल्याणकारी तथा सुगन्धित वस्त्र धारण करने वाले, कल्याणकारी उत्तममाला और अङ्गलेपन को धारण करने वाले, प्रकाशित शरीर वाले, लम्बी वन मालाओं को धारण करने वाले देवता होते हैं। वे अपने दिव्य रूप, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, शरीर, शरीर का संगठन, ऋद्धि, द्युति, कान्ति, अर्चा, तेज और लेश्याओं से दश दिशाओं को प्रकाशित करते हुए कल्याणगति और स्थिति वाले भविष्य में भद्रक होने वाले देवता होते हैं । यह स्थान आर्य है और यह समस्त दुःखों का नाश करने वाला है । यह स्थान एकान्त उत्तम और अच्छा है । दूसरा स्थान जो धर्मपक्ष है उसका विभाग वर्णन इस प्रकार कहा गया है ।
विवेचन - दूसरे पक्ष का नाम धर्मपक्ष है। इसमें उत्तमोत्तम आचार और आगमानुकूल विचारनिष्ठ अनगार को धर्म पक्ष का अधिकारी बताया गया है। उसकी वृत्ति और प्रवृत्ति आदि का विश्लेषण करते हुए अन्त में उसकी सुन्दर फलश्रुति दी गयी है विशिष्ट अनगार की वृत्ति को कांस्यपात्र, शंख आदि इक्कीस पदार्थों से उपमा दी गयी है जिसका विश्लेषण भावार्थ में कर दिया गया है। अनगारों की प्रवृत्ति के रूप में प्रारंभिक साधना से लेकर अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक की तप त्याग और संयम की साधना का विवेचन किया गया है। वे मुनि अप्रतिबद्ध विहारी होते हैं। उन अनगार भगवन्तों के लिये किसी भी जगह प्रतिबन्ध (रुकावट) नहीं होता है। प्रतिबन्ध के चार भेद बतलाये गये हैं यथा१. अण्डज अर्थात् अण्डे से उत्पन्न होने वाले हंस, मोर आदि पक्षियों में आसक्ति हो जाना अथवा अण्डज का अर्थ रेशमी वस्त्र भी किया गया है अर्थात् रेशमी वस्त्र आदि में आसक्ति हो जाना। २. पोतज अर्थात् हाथी आदि में आसक्ति हो जाना। ३. अवग्रह अर्थात् मकान, पाट आदि में आसक्ति हो जाना ४. औपग्रहिक अर्थात् कारण विशेष से लकड़ी आदि रखना। इनमें आसक्ति हो जाना।
इन चार प्रकार के पदार्थों में आसक्ति हो जाने से विहार में प्रतिबन्ध अर्थात् रुकावट हो जाती है। उन अनगार भगवन्तों के ऐसे किसी प्रकार रुकावट नहीं थी। दस प्रकार अप्रतिबद्धता थी। इस पंचम । काल के प्रभाव से अब मुनिपने में शिथिलता आने के कारण कई मुनि पुण्यधाम, मंगलधाम, समाधि, पगलिया आदि बनाने की प्रवृत्ति करने लगे हैं। यह सब ममता का कारण होने से परिग्रह रूप हो जाता है। ये सब प्रवृत्तियाँ जिनेश्वर देव की आज्ञा के विरुद्ध है। उन अनगार भगवन्तों की विविध प्रकार की तपश्चर्या विविध अभिग्रह युक्त भिक्षाचरी, आहार विहार की उत्तम चर्या, शरीर प्रतिकर्म (सेवा सुश्रूषा शरीर को सजाना) का त्याग परीषह उपसर्ग का सहन तथा अन्तिम समय में संलेखना संथारा पूर्वक आमरण अनशन ये अनगार की प्रवृत्ति के मुख्य अंग हैं। __सुपरिणाम - धर्म पक्ष के अधिकारी की वृत्ति और प्रवृत्ति के दो शुभ परिणाम शास्त्रकार ने बतलाये हैं यथा -
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