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________________ ८० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ का एवं छह मास का उपवास ये करते हैं इसके सिवाय किसी का अभिग्रह होता है कि-"वे हण्डिका (खीचड़ी आदि पकाने का बर्तन) में से निकाला हुआ ही अन्न लेते हैं। कोई महात्मा परोसने के लिए हण्डिका में से निकाल कर फिर उसमें रखा हुआ ही अन्न लेते हैं, कोई हण्डिका में से निकाले हुए तथा हण्डिका में से निकाल कर फिर उसमें रखे हुए इन दोनों प्रकार के आहारों को ही ग्रहण करते हैं। कोई अन्त प्रान्त आहार लेने का अभिग्रह रखते हैं। कोई रूक्ष आहार ही ग्रहण करते हैं। कोई छोटे बड़े अनेक घरों से ही भिक्षा ग्रहण करते हैं। कोई जिस अन्न या शाक आदि से चम्मच या हाथ भरा हो उस हाथ या चम्मच से उसी वस्तु को लेने का अभिग्रह धारण करते हैं। कोई देखे हुए आहार को ही लेते हैं और कोई न देखे हुए आहार तथा न देखे हुए दाता की ही गवेषणा करते हैं। कोई पूछ कर ही आहार लेते हैं और कोई बिना पूछे ही आहार ग्रहण करते हैं । कोई तुच्छ आहार ही लेते हैं और कोई अतुच्छ आहार लेते हैं। कोई अज्ञात आहार ही लेते हैं कोई अज्ञात लोगों से ही आहार लेते हैं कोई देने ‘वाले के निकट में स्थित आहार को ही लेते है कोई दत्ति की संख्या करके आहार लेते हैं, कोई परिमित आहार ही लेते हैं। कोई शुद्ध यानी दोषवर्जित आहार की ही गवेषणा करते हैं। कोई अन्त आहार ही लेते हैं। कोई भूजे हुए चना आदि ही लेते हैं, कोई बचा हुआ आहार ही लेते हैं, कोई रसवर्जित आहार लेते हैं, कोई विरस आहार लेते हैं, कोई रूक्ष आहार लेते हैं, कोई तुच्छ आहार लेते हैं। कोई अन्त प्रान्त आहार से ही जीवन निर्वाह करते हैं, कोई सदा आयंबिल करते हैं, कोई सदा दोपहर के बाद ही आहार करते हैं, कोई सदा घतादि रहित ही आहार करते हैं।" वे सभी महात्मा मद्य और मांस नहीं खाते तथा वे सर्वदा सरस आहार नहीं करते हैं। वे सदा कार्योत्सर्ग करते रहते हैं तथा प्रतिमा (ली हुई प्रतिज्ञा या अभिग्रह) का पालन करते हैं, उत्कटुक आसन से बैठते हैं। वे आसम युक्त भूमि पर ही बैठते हैं, वे वीरासन लगाकर बैठते हैं, वे डण्डे की तरह लम्बा होकर रहते हैं, वे डेढ़े काठ की तरह सोते हैं वे बाहर के आवरण से रहित और ध्यानस्थ रहते हैं, वे शरीर को नहीं खुजलाते थूक बाहर नहीं फेंकते हैं इस प्रकार औपपातिक सत्र में जो गण कहे हैं वे सब यहाँ भी जानने चाहिए। वे अपने सिर के बाल. मूंछ, दाढी, रोम और नख को सजाते नहीं हैं। वे अपने समस्त शरीर को परिकर्म (सजाना) नहीं करते हैं। वे महात्मा इस प्रकार उग्र विहार करते हुए बहुत वर्षों तक अपनी दीक्षा का पालन करते हैं। अनेक रोगों की बाधा उत्पन्न होने या न होने पर वे बहुत काल तक अनशन यानी संथारा करते हैं। वे बहुत काल का अनशन करके संथारा को पूर्ण करते हैं। अनशन का पालन करने के पश्चात् वे महात्मा जिस वस्तु की प्राप्ति के लिए नग्न रहना, मुण्ड मुंडाना, स्नान न करना, दांत साफ न करना, छत्ता न लगाना, जूता न पहिनना एवं भूमि पर सोना, फलक (पाटिया) के ऊपर सोना, काठ पर सोना, केश का लुञ्चन करना, ब्रह्मचर्य धारण करना, भिक्षार्थ दूसरे के घर में जाना आदि कार्य किए जाते हैं तथा जिसके लिए मान अपमान हीलना निन्दा फटकार ताड़न और कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक प्रकार के कुवचन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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