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________________ अध्ययन २ ७९ वे आस्रवों का सेवन नहीं करते हैं और सब परिग्रहों से रहित होते हैं। वे महात्मा संसार के प्रवाह का छेदन किए हुए तथा कर्म मल के लेप से रहित होते हैं जैसे कांसे की पात्री में जल का लेप नहीं लगता है। इसी तरह उन महात्माओं में कर्म रूपी मल का लेप नहीं लगता है। जैसे शंख कालिमा से रहित होता है उसी तरह वे महात्मा रागादि दोषों से रहित होते हैं। जैसे जीव की गति कहीं नहीं रुकती है, वैसे ही उन महात्माओं की गति किसी भी स्थान में नहीं रुकती है। जैसे आकाश बिना अवलम्बन के ही रहता है इसी तरह वे महात्मा भी निरवलम्ब रहते हैं अर्थात् वे अपने निर्वाह के लिए किसी व्यापार, धन्धा तथा व्यक्ति का अवलम्बन नहीं रखते हैं। जैसे पवन बन्धन रहित होता है इसी तरह वे महात्मा भी प्रतिबन्ध रहित होते हैं। वे शरद ऋतु के निर्मल जल की तरह शुद्ध हृदय वाले होते हैं। जैसे कमल का पत्र जल के लेप से रहित होता है इसी तरह वे महात्मा कर्म जल के लेप से रहित होते हैं । वे कछुवे की तरह अपनी इन्द्रियों को गुप्त रखते हैं। जैसे पक्षी स्वच्छन्द विहारी होता है इसी तरह वे महात्मा समस्त ममताओं से रहित स्वच्छन्द विहारी होते हैं जैसे गेंडे का सींग एक ही होता है उसी तरह वे महात्मा राग द्वेष रहित तथा भाव से एक ही होते हैं। वे भारण्ड पक्षी की तरह प्रमाद रहित होते हैं। जैसे हाथी वृक्ष आदि को तोड़ने में समर्थ होता है उसी तरह वे महात्मा कषायों का शमन करने में समर्थ होते हैं। जैसे बैल भारवहन करने में समर्थ होता है इसी तरह वे महात्मा संयम भार के वहन में समर्थ होते हैं। जैसे सिंह को दूसरे पशु दबा नहीं सकते इसी तरह उन महात्माओं को परीषह और उपसर्ग नहीं दबा सकते हैं। जैसे मन्दर पर्वत कम्पित (चलायमान) नहीं होता है उसी तरह वे महात्मा परीषह और उपसर्गों से कम्पित (चलायमान) नहीं होते हैं। वे समुद्र की तरह गम्भीर होते. हैं अर्थात् हर्ष शोकादि से व्याकुल नहीं होते । चन्द्रमा के समान उनकी शीतल प्रकृति होती है। वे सूर्य के समान बड़े तेजस्वी होते हैं उत्तम जाति वाले सोने में जैसे मल नहीं लगता है उसी तरह उन महात्माओं में कर्म मल नहीं लगता है। वे पृथ्वी के समान सभी स्पर्शों को सहन करते हैं। अच्छी तरह होम की हुई अग्नि के समान वे तेज से देदीप्यमान रहते हैं। उन भाग्यशाली महात्माओं के लिए किसी भी जगह प्रतिबन्ध नहीं होता है। वह प्रतिबन्ध चार प्रकार से होता है जैसे कि - अण्डा से उत्पन्न होने वाले हंस और मयूर आदि पक्षियों से तथा बच्चे के रूप में उत्पन्न होने वाले हाथी आदि के बच्चों से एवं निवास स्थान तथा पीठ फलक और उपकरण आदि से, विहार में प्रतिबन्ध होता है, परन्तु उनके विहार में ये चारों ही प्रतिबन्ध नहीं होते हैं। वे जिस जिस दिशा में जाना चाहते हैं उसमें प्रतिबन्ध रहित चले जाते हैं। वे निर्मल हृदय, परिग्रह रहित और बन्धन हीन महात्मा संयम और तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। उन भाग्यशाली महात्माओं की संयम के निर्वाहार्थ ऐसी जीविकावृत्ति होती है जैसे कि - एक दिन का उपवास, दो दिन का उपवास, तीन, चार, पाँच तथा छह दिन का उपवास एक, पक्ष का उपवास, एक मास का उपवास, दो मास का उपवास, तीन मास का. चार मास का, पांच मास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004189
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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